छत्तीसगढ़ कृषि प्रधान राज्य है, यहां धान की बाली को ही लक्ष्मी का रूप माना जाता है, इस दिन मुख्य पूजा माता लक्ष्मी की होती है. वास्तव में दीपावली ज्योति का पर्व है. गांव के दैहान में मातर पर्व मनाया जाता है. यहां राऊत पारंपरिक वेशभूषा में नाचते-कूदते मातर त्यौहार मनाते है. गांव के लोग मातर जगाने गौठान में जाते हैं.
डॉ. पंचराम सोनी-
दीपावली पर्व भारत में प्राचीनतम काल से मनाया जा रहा है. छत्तीसगढ़ में भी पांच दिनों तक प व्यापक रूप में मनाया जाता है. इस पर्व को सभी जाति वर्ग के लोग उत्साहपूर्वक मनाते हैं. इस पर्व के पांच दिनों का एक ऐसा महायोग बनता है, जिसमें मानव समाज दीपोत्सव के प्रज्जवलित दीपों की परस्पर एक हो जाते हैं. इसलिए इसे महापर्व भी कहा जाता है. देखा जाए तो पांच दिनों तक इस पर्व के व्यापक स्वरूप हमारे सामने होता है. अन्य प्रांतों में भी इस त्यौहार को उतने ही उत्साह के साथ मनाया जाता है. छत्तीसगढ़ में यह धनतेरस, नरक चौदस, सुरहोती/देवारी, गोवर्धन पूजा और मातर के रूप में मनाया जाता है. कई दिन पहले से त्यौहार की तैयारी की जाती है. छत्तीसगढ़ की मुख्य फसल धान है। इसी समय धान की फसल पकने की अवस्था में रहते हैं. यदि फसल अच्छी होने का संकेत हो तो किसानों का त्यौहार के प्रति उत्साह और बढ़ जाता है. लक्ष्मी को अन्न का प्रतीक माना जाता है, इस कारण अन की देवी के रूप में माता लक्ष्मी को पूजा जाता है. समाज का हर वर्ग इस त्यौहार के प्रति आशन्वित रहता है. बच्चे भी नए कपड़े के साथ पटाखे जलाने के लिए आतुर रहते हैं. इस तरह कहा जा सकता है कि यह त्यौहार सबके लिए मंगलमय और खुशहाली देने वाला होता है. यदि इस त्यौहार को सभी आपसी मतभेद मिटाकर सौहार्द के साथ मनाएं तो हम सबके लिए हितकर होगा.
दीपोत्सव
दीपोत्सव में इंद्र, वरुण, अग्नि आदि वैद्दिक देवताओं में लक्ष्मी जी भी एक मानी गई है. अन्य देवताओं के साथ ही साथ लक्षमी जी की पूजा विधि का उल्लेख भी वैदिक साहित्य में हुआ है. इस संदर्भ में ऋावेद में श्री सूक्त के नाम से कुछ मंत्र अलग से दिया हुआ है, जिसमें श्री लक्ष्मी जी के अनेक नामों का महत्व के साथ उल्लेख हुआ है.
पौराणिक
पौराणिक काल में लक्ष्मी जी की पूजा का स्वरूप और समय का निर्धारण हुआ है. स्कंद हितकर पुराण के अनुसार लक्ष्मी एक समय गंगा के श्राप वश समुद्र में जा मिली थी, जो समुद्र मंथन से बाहर निकली है. श्री विष्णु से उनका वरण होने पर वे श्राप से मुक्त हुई. मार्कण्डेय पुराण में र्स्वप्रथम लक्ष्मी जी की पूजा स्वर्ग में नारायण ने की थी, उसके बाद ब्रम्हा जी ने और शिव जी ने की थी. चौथी बार समद्र मंथन से प्रकट होने के उपरांत विष्णु जी के द्वारा पुनः लक्ष्मी पूजा का उल्लेख मिलता है. इसके पश्चात् मनु के द्वारा लक्ष्मी की पूजा की गई, वह दिन जब शिशिर ऋतु आरंभ हुआ, अमावस्या की घनघोर रात्रि थी, उस रात्रि को महारात्रि का नाम दिया गया. इस रात्रि के अवसर पर उन दिनों भी मनुष्यों के द्वारा व्यापक रूप से दीप प्रज्वलित कर प्रसन्नता व्यक्त की गई, जातक कथाऔं में भी दीपोत्सव का उल्लेख मिलता है.
पुरातात्विक
भारतीय प्राचीन मुद्राओं पर लक्ष्मी जी की आकृति मिलती है. अयोध्या, उज्जैन आदि स्थलों से प्राप्त मुद्राओं पर लक्ष्मी अंकित है, ये मुद्राएं ईसा पूर्व के हैं. गुप्तकालीन मुद्राओं पर एक ओर सम्राट तथा दसरी ओर लक्ष्मी मिली है. माना जाता है लक्ष्मी जी गुप्त वशों की कुल देवी रही.
सतयुग
एक समय देवी दुर्गा ने अस्रों का वध करने के लिए महाकाली का विकराल रूप धारण किया था. असूर वध के बाद भी जब देवी की क्रोधाग्रि शांत नहीं हुई तब स्वयं शिव जी उनके चरणों में पड़ गए, जिनकी तपोमय शरीर के स्पर्श से काली का क्रोध
समाप्त हुआ और वे शांत हो गई. तब से उनकी स्मृति में उनका शांत स्वरूप का लक्ष्मी जी के रूप में पूजन प्रारंभ हुआ. इसी प्रकार भारत में बहुप्रचलित प्राचीन परंपरा के अनुसार केरल क्षेल के महाप्रतापी राजाबलि से भगवान विष्ण ने तीन पग में पूरी थरती दान में ले लिया था. किन्तु उनकी दानशीलता से प्रसत्र होकर वामन अवतारी विष्णु ने पाताल का राज्य उन्हें लौटा दिया था. साथ ही यह वचन और आशीर्वाद भी दिए कि पृथ्वीवासी उनकी स्मृति में दीपोत्सव मनाएंगे. राजा बलि भक्त प्रहाद का पोता था.
त्रेतायुग
त्रेतायुग में श्रीराम चौदह वर्ष का वनवास पूर्ण करने के पश्चात रावण वध कर जब आयोध्या लौटे थे, तब राज्य के नर-नारी,
बाल-वृद्ध भरे उत्साह से उनके स्वागत में उमड़ पड़े. सम्पूर्ण राज्य में साफ-सफाई, लिपाई-पोताई कर तोरन, वंदन इत्यादि से
नगर और भवनों को सजाया गया था. भव्य स्वागत द्वारों का निर्माण किया गया. चौंका आरती सजाकर जगह-जगह रोशनी की व्यवस्था की गई थी. इस प्रकार सारा राज्य रोशनी से जगमगा उठा था. इस दिन को दीपावली के रूप में मनाया गया था. आज भी यह परंपरा दुहराई जाती है.
द्वापर युग
द्वापर युग में परंपरा की पुनरावृत्ति करते हुए नवीन घटना घटित हुई. जिसका उल्लेख महाभारत के आदि पर्व में मिलता है. इस समय पांडव अपने वनवास काल को पूर्ण कर नगर में लौटे थे. यह भी उल्लेख मिलता है कि एक समय श्री कृष्ण के द्वारा नरकासुर का वध हुआ था, वह दीपावली का दिन था. जब मथुरा वासियों को यह संदेश मिला तब संपूर्ण मथुरा राज्य रोशनी से जगमगा उठा था. खुशी में मिठाइयां बांटी गई और धुमधाम से दीपावली मनाई गई. इस प्रकार एक कहावत प्रचलित हो गई कि जब किसी बड़ी खुशी का अवसर मिलता है तो लोग कह पड़ते हैं आज दीवाली है. कार्तिक अमावस्या के दिन श्रीकृष्ण सर्वप्रथम ग्वालों के साथ गाय चराने वन गए थे. संध्या उनके लौटने पर गोकुल नगरवासी घर-घर जगमगाते दीपों से उनका स्वागत किए. इस घटना की स्मृति में दीपोत्सव पर्व मनाया जाने लगा.
ऐतिहासिक
चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य राज्याभिषेक दीपावली के दिन हुआ था. इस उपलक्ष्य में राज्योत्सव तथा दीपावली संयुक्त रूप से मनाया जाने लगा. सिक्खों के 6वें गुरु गुरूगोविंद जी इसी दिन जहांगीर की कैद से मुक्त होकर मृतसर लौटे थे. यहाँ के स्वर्ण मंदिर का निमाण कार्य भी दीपावली से प्रारंभ हुआ था. इन सबके तत्वाधान में संयुक्त दीपोत्सव की परंपरा चल पड़ी.
गोवर्धन पूजा
दीपावली के दुसरे दिन गोवर्धन पूजा की जाती है। इस अन्नकूट तथा ग्राम्य अंचल में देवारी के नाम से मनाया जाता है. इस दिन श्रीकृष्ण के द्वारा गोवर्धन पर्वत धारण करके इंद्र की वज्र और कोप से लोगों की रक्ष और इन्द्र के गर्व का दमन किया था. इसलिए उनकी स्मृति में गोवर्धन पूजा की जाती है. श्रीकृष्ण पशु पालन के पक्षधर थे. पशुओं के गोबर मूत्र बहु विधि उपयोगी और मूलयवान है. पशुओं की पूजा स्वंय श्रीकृष्ण ने की थी. इस पंरपरा का प्रचलन यहां सर्वेत्र देखा जाता है.
भाई दूज
यह दीपावली के तीसरे दिन मनाया जाता है. भाई-बहन के बीच स्रेह भरे पर्वों में यह एक महत्वपूर्ण पर्व है. इस दिन बहनें भाई को टीका लगा उनके मंगल एवं दीघायु होने की कामना करती हैं. कहा जाता है इस दिन यमराज अपनी बहन “समी’ यमुना के घर आए थे. यमुना उनके माथे पर तिलक लगाकर उनके लंबी आयु की कामना की थी. तब से इस पर्व को भाई दूज के रूप में मनाया जाने लगा.
मातर
भाई दुज के दिन दिवाली पर्व से शुड़ा एक और महाआयोजन सम्पन्न होता है जिसमें सम्पूर्ण गांव की सहभागिता दिखाई पड़ती है, वह आयोजन ‘मातर’ अर्थोत मातृशक्ति पर्व है. मातर छत्तीसगढ़ में यादव (राऊत) लोगों का महत्वपूर्ण त्योहार है. मातर का अर्थ माता से संबंध होता है यादवों अपनी धरती माता, जन्म देने वाली माता, ग्राम देवी और गौ माता की रक्षा करने वाली माता को मातर परब के माध्यम से अराधना करते हैं. राऊत लोग इसका उल्लेख अपने दोहों के माध्यम से करते हैं-
एक कांछ कांछौ रे भाई, दूसर दिये लगाई ।
तीसर कांछ कांछौ रे, मोर सब माता के दुहाई ।।
गांव के दैहान में मातर पर्व मनाया जाता है. यहां राऊत पारंपरिक वेशभूषा में नाचते-कुदते मातर त्यौहार मनाते हैं. गांव घर के
लोग मातर जगाने गौठान में जाते हैं.
छत्तीसगढ़ में दीपावली पर्व का अपना अलग महत्व है. लोक संस्कृति की दृष्टि से देखें तो यह आराधना का पर्व है, जिसमें सभी लोग मिलजुल कर अपने बैर-भाव को मिटाकर इस त्योहार को मनाते हैं, छत्तीसगढ़ कृषि प्रथान राज्य है, यहां धान की बाली को ही लक्ष्मी का रूप माना जाता है, इस दिन मुख्य पूजा माता लक्ष्मी की होती है. वास्तव में दीपावली ज्योति का पर्व है वह ज्योति जिसमें लोक की मंगल कामना समाहित है. सुख और समृद्धि के लिए. यह उत्साह और उमंग का पर्व है. छत्तीसगढ़ में देवारी तिहार 5 दिनों तक अलग-अलग रूप में मनाई जाती है इसलिए दीपावली पर्वों का महापर्व हैं