
छत्तीसगढ़िया मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को चुनौतियों को अवसर में बदलने में महारत हासिल है. अपने इस नैसर्गिक गुण का प्रमाण वे बार-बार देते रहे हैं और इसके नतीजे भी देखने को मिले हैं. बात चाहे राज्य परिवहन निगम को घाटे से उबारने की हो, सूखा ग्रस्त इलाके में जल संधारण की हो या अकाल के प्रबंधन की हो, उनकी मौलिक सोच और काम करने की जिजीविषा देखते ही बनती है. बिना विभाग का मंत्री होने से लेकर मुख्यमंत्री बनने तक का उनका सफर अनेक उपलब्धियों से भरा पड़ा है. उनकी बस एक ही शर्त होती है, कि वो योजना या उसके क्रियान्वयन में हस्तक्षेप और तब्दीलियां पसंद नहीं करते.
भूपेश बघेल छत्तीसगढ़ के तीसरे और वर्तमान मुख्यमंत्री हैं. उन्होंने 80 के दशक में यूथ कांग्रेस से अपना राजनीतिक जीवन प्रारंभ किया. पाटन से पांच बार विधानसभा के लिए चुने गए भूपेश छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी रहे हैं. 1990 में वे जिला युवा कांग्रेस कमेटी दुर्ग (ग्रामीण) के अध्यक्ष चुने गए. 1993 में वे पहली बार पाटन विधानसभा से चुने गए तथा मध्य प्रदेश विधानसभा पहुंचे. 1993 से 2001 तक मध्य प्रदेश हाउसिंग बोर्ड के निदेशक रहे. 90 के दशक के अंत में उन्हें दिग्विजय सिंह सरकार में कैबिनेट मंत्री बनाया गया. उन्होंने इस मौके का भरपूर उपयोग किया और अपनी छवि एक जोशीले, कर्मठ, ऊर्जावान, कुशाग्र बुद्धि और निर्णय क्षमता के धनी राजनेता के रूप में स्थापित कर लिया.
भूपेश सपाट बयानी के लिए भी जाने जाते हैं. वे अपने मन की बात बिना किसी लाग लपेट के कह देते हैं. दिग्विजय सिंह सरकार में जब उन्हें पहली बार राज्य मंत्री बनाया गया तो उनके पास कोई विभाग नहीं था. उन्हें मुख्यमंत्री के साथ संबद्ध रखा गया था. उन्होंने मुख्यमंत्री से कह दिया कि – यह कैसा काम है. सुबह से शाम तक बैठा रहता हूं. पर मुख्यमंत्री को ‘पूत के पांव पालने’ में ही दिख गए थे. उन्होंने यह कहकर बात टाल दी कि यहीं से काम सीखने का मौका मिलेगा. वहीं पर उन्हें सचिवालय के कामकाज को बारीकी से देखने और जानने का मौका मिला.
मध्यप्रदेश के तत्कालीन परिवहन मंत्री लिखीराम कावरे की हत्या हो गई. भूपेश बघेल को इस मंत्रालय की जवाबदारी सौंपी गई. भूपेश ने पहले तो इंकार कर दिया. उनका कहना था कि यह काजल की कोठरी है जहां केवल बदनामी ही हाथ आती है. इससे आज तक कोई बेदाग नहीं निकल पाया है. पर दिग्विजय सिंह अड़े रहे. इस पर भूपेश ने अपनी भी शर्त रख दी. उन्होंने कहा कि वे विभाग का काम काज देखेंगे पर इसमें किसी का भी हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए, मुख्यमंत्री का भी नहीं. मुख्यमंत्री मान गए और फिर भूपेश ने जो किया वह इतिहास में दर्ज है.
मुख्यमंत्री ने भी एक शर्त रखी कि घाटे में चल रहे राज्य परिवहन को उबारना है. भूपेश बघेल ने इस चुनौती को स्वीकार किया. काफी सोच विचार के बाद उन्होंने लांगरूट की निजी बसों की परमिट को बंद करने का फैसला लिया. मध्यप्रदेश में हड़कंप मच गया, निजी बड़े ट्रांसपोर्टर सकते में आ गए.
लिखीराम कावरे परिवहन मंत्री की हत्या हुई थी. तब इनको विभाग दिया गया. मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का कहना था- तुम्हें परिवहन मंत्री बना रहे हैं. भूपेश बघेल ने कहा था मुझे नहीं बनना है. परिवहन मंत्री काजल की कोठरी है जहां से कोई बेदाग निकल पाया है क्या? तुम्हें ये ही पद लेना मेरी शर्त है काकाजी मेरे विभाग में कोई राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होगा, चाहे आप ही क्यों न हो. निजी ट्रांसपोर्टरों का प्रतिनिधि मंडल भूपेश से मिलने पहुंचा. भूपेश ने बिना कोई भूमिका बनाए कह दिया कि पहले इस सवाल का जवाब दें कि निजी ट्रांसपोर्टर पैसा कमा रहे हैं तो राज्य परिवहन निगम घाटे में क्यों है? राज्य परिवहन को घाटे से उबारने का फार्मूला दो फिर निजी परमिट पर भी विचार किया जाएगा. जवाब मिला कि राज्य परिवहन निगम में चोरी-चकारी खूब होती है. बसों की हालत ठीक नहीं है. इसलिए घाटे में चल रही है.
इसके बाद भूपेश ने राज्यपरिवहन के चालक-परिचालक दल से सीधी बात की. चालक-परिचालकों ने बताया कि छह-छह माह तक वेतन नहीं मिलता. चोरी न करें तो घर कैसे चले. भूपेश बघेल ने उनकी समस्या को समझा और फिर एक बड़ी घोषणा कर दी. उन्होंने कहा कि वेतन समय पर मिलेगा, चोरी चकारी बंद होगी तो बोनस भी मिलेगा. चालक परिचालकों ने उनकी बात मान ली. 5-6 माह का वेतन उन्हें एकमुश्त प्राप्त हो गया. चोरी चकारी बंद हुई तो परिवहन विभाग का राजस्व तेजी से बढ़ने लगा. यह किसी चमत्कार से कम नहीं था. भूपेश अपना वादा नहीं भूले – राजस्व बढ़ते ही उन्होंने चालक-परिचालकों को बोनस की राशि भी दिलवाई.
एक समस्या अब भी थी. राज्य परिवहन की बसें खटारा हो चुकी थीं. लोग ज्यादा पैसे देकर निजी बसों में सफर करना पसंद करते थे. ऐसे समय में उन्होंने “मिलेनियम-2000” लक्जरी बसों का संचालन प्रारंभ किया. राज्य परिवहन की छवि बदल गई. जनता का विश्वास राज्य परिवहन में लौटा और राजस्व एक नए मुकाम की ओर बढ़ने लगा. उधर निजी बसों पर भी दबाव बना और उनकी मनमानी पर परोक्ष रूप से अंकुश लग गया.
पर यह सब ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाया. एक नवम्बर सन 2000 को मध्यप्रदेश का विभाजन हो गया और नया राज्य छत्तीसगढ़ अस्तित्व में आ गया. बंटवारे में अजीत प्रमोद कुमार जोगी छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री मनोनीत हो गए. भूपेश को एक नई जिम्मेदारी मिली, राजस्व पुनर्वास, राहत कार्य, लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी मंत्री की. दुर्भाग्य से छग राज्य बनते ही सूखे की स्थिति निर्मित हुई. इसे भी भूपेश ने आपदा में अवसर के रूप में स्वीकार किया. सूखे से निपटने गांव-गांव में इतने राहत कार्य खोले गए, कि मजदूरों के घर राहत कार्य के चावल और धान का ढेर लग गया. छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के बाद से अब तक का यह एक रिकार्ड है. सूखे के बावजूद उस साल गरीबों के घरों में बहुत ज्यादा शादियां हुईं.
अब उन्हें जल संकट का स्थायी समाधान ढूंढना था. उन्होंने रींवा के राजेन्द्र सिंह, महाराष्ट्र के रालेगणसिद्धि के अन्ना हजारे तथा राजस्थान के जल संसाधन मंत्री के द्वारा किये गए उपायों का गहन अध्ययन किया. इन सूखाग्रस्त क्षेत्रों जल संग्रहण उपायों के बाद स्थिति काफी सुधर गई थी. भूपेश स्वयं समीक्षा करने गए. वहां से तकनीकि जानकारी हासिल की. छत्तीसगढ़ में लूज बोल्डर चेक, चेकडैम, गैरेबियन चेकडैम, डाइकवाल स्टापडेम जैसी जल संग्रहण की संरचनाओं को खड़ा करने में उनका यही अध्ययन काम आया. इन संरचनाओं को कैसी भौगोलिक परिस्थिति में बनाया जाना चाहिए, इसके वे विशेषज्ञ बन चुके हैं. वे इस दिशा में समय-समय पर अधिकारियों का भी मार्गदर्शन करते हैं.
जल संरक्षण-संग्रहण की इस योजना को भूपेश ने पाटन में ही पायलट परियोजना के रूप में प्रारंभ किया. गुजरा नाला अपर एवं गुजरा नाला लोवर के नाम से राजीव गांधी जल ग्रहण मिशन के तहत कार्य करवाए. तब पाटन क्षेत्र का भूजल स्तर बहुत नीचे था. भविष्य में पेयजल संकट होना निश्चित था. पाटन को ड्राइ जोन कहा जाता था. इस योजना के लागू होने के बाद तेजी से भूजल स्तर में वृद्धि हुई तथा स्टाप डेम के किनारे रोड तरफ मक्का, सरसों, चना, सूरजमुखी होने लगा. कभी सूखे की मार झेलने वाला यह क्षेत्र दो फसली हो गया. इस गुजरा नाला परियोजना को देखने समझने के लिए भारत भर के तकनीकि विशेषज्ञ समय-समय पर आते रहते हैं.
दूसरी समस्या निस्तार और पेयजल की थी. भूपेश बघेल ने गांव-गांव में इंदिरा गांव गंगा योजना के तहत तालाबों के किनारे ट्यूबवेल खुदवा कर तालाबों को भरवा दिया. यह भी एक ऐतिहासिक कार्य रहा कि भीषण सूखे के बावजूद कहीं भी पेयजल या निस्तारी की समस्या नहीं रही. बतौर राजस्व मंत्री उन्होंने देखा कि किसान खसरा-नक्शा इत्यादि के लिए परेशान हो रहे हैं. उन्हें पता चला कि आंध्रप्रदेश में खसरा नक्शा या राजस्व संबंधी जानकारी डिजिटल फार्मेट में दी जा रही है. उन्होंने स्वयं आंध्रप्रदेश जाकर इस संबंध में प्रशिक्षण प्राप्त किया. पायलट आधार पर उन्होंने इस प्रणाली को पाटन में लागू किया. इसके अच्छे नतीजे आए और आज यह पूरे प्रदेश में लागू है.
सिंचाई हमेशा ही एक समस्या रही है. नदी के किनारे के गांव की भूमि का लेवल ऊंचा होने के कारण जल संसाधन द्वारा निर्मित बांधों से सिंचाई सुविधा उपलब्ध करना संभव नहीं हो पाता था. साथ ही भविष्य में भूजल स्तर के और गिरने की संभावना थी. इससे पेयजल की विकट समस्या पैदा होना भी तय था. भूपेश की सलाह पर ही जोगी सरकार ने इस समस्या के निदान के लिए नदियों में 460 एनीकट बनाने का निर्णय लिया. इसका परिणाम ये रहा कि जो नदियां मार्च में सूख जाती थीं वे बारहमासी हो गईं. नदी के किनारे के किसान निजी साधन एवं नलकूप के माध्यम से तीन फसलें लेने लगे. पेयजल एवं निस्तार की समस्या से भी निजात मिल गई है.
इसके बाद दीर्घ पंद्रह वर्षों तक कांग्रेस सत्ता से बाहर रही. 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने जोरदार वापसी की. भूपेश बघेल ने बतौर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष इस चुनाव का नेतृत्व किया था. 90 में से 69 विधानसभा सीट पर भारी मतों से जीत के बाद कांग्रेस की सरकार बनी और भूपेश बघेल मुख्यमंत्री चुन लिए गए. बिना कोई समय गंवाए उन्होंने कमर कसी और ठहरे हुए कार्यों को आगे बढ़ाने में जुट गए. भूपेश सरकार ने इसके बाद एनीकटों में सौर ऊर्जा से सूक्ष्म सिंचाई योजना की शुरुआत की. इसका पायलट प्रोजेक्ट भी पाटन के (डगनिया के पास) बोरेंदा गांव में प्रारंभ किया. इसके नतीजे इतने अच्छे आए कि किसान अब धान गेहूं चना सब्जी के अलावा भाजी और फलोद्यान का कार्य भी कर रहे हैं. यह योजना छत्तीसगढ़ में विभिन्न स्थानों पर निर्माणाधीन है.