
भगवान शिव की अनन्य भक्त देवी अहिल्या बाई होल्कर की 300वीं जयंती
भारत के इतिहास में कुछ महिलाएं ऐसी रही हैं जिनका जीवन आने वाली पीढ़ियों के लिए आदर्श बन गया. उन्हीं में से एक हैं राजमाता अहिल्याबाई होलकर, जिनकी 300वीं जयंती पर हम श्रद्धा और गर्व के साथ उन्हें स्मरण कर रहे हैं.
रूपाली कश्यप-
आज यह मेरा लेख है इस लेख को लिखने से पूर्व मैने शिव जी को अपना सहयोग देने और अपना आर्शीवाद देने की प्रार्थन की, क्योंकि आज का लेख भगवान शिव की अनन्य भक्त देवी अहिल्याबाई होल्कर के बारे में है. 31 मई 1725 को आज ही के दिन एक ऐसी स्त्री ने जन्म लिया जो अपने कार्यो के कारण आज 300 साल बाद भी याद की जाती है जिनके सम्मान में कई राज्यों की सरकार योजनाएं चलाती है, इंदौर विश्वविद्यालय के नाम आहिल्या बाई होल्कर के नाम पर रखा गया है. इंदौर का कण-कण आज भी इनका शुक्रिया करता है. जनता ने जिन्हे “मातोश्री”, “पुन्यश्लोक” नाम दिया. ऐसी विभूति जिसमें अपने जीवन में र्धयता की पराकाष्ठा दिखाई तो समय आने पर अपने राज्य को बचाने के लिए हाथों में तलवार लिए युद्धरण में नजर आई.
उनका जन्म एक सामान्य परिवार में हुआ था. मराठा सूबेदार मल्हार राव होल्कर जब चौढी ग्राम से गुजर रहे थे तब उनकी भेंट आहिल्या से होती है वो 8 साल की उम्र में भी परोपकार करते हुए मिलती है. एक अपने अनुभव से मल्हार सरकार ने उनकी पहचान और उन्हें अपनी बहु बनाने का निर्णय लेते है. मल्हार सरकार की 3 रानियां थी. जिनमें पुत्र एक मात्र खण्डेराव उनकी पहली रानी गौतमा बाई थी. खण्डेराव बहुत लाड-प्यार में बड़े जिद्दी और घुस्सैल बालक था. एक राजकुमार की सामान्य परिवार की बालिका से विवाह कराने के निर्णय पर सारा बाड़ा विरोध करता है परंतु मल्हार सरकार का निर्णय अटल होता. वो आहिल्या बाई को अपनी बहू बनाते है. यहां से शुरू होता है उनका संघर्ष. एक 8 साल की बच्ची जिन्हें उनके ससुराल में कोई पसंद नहीं करता और पति जो हमेशा उन्हें अपनी शरारतों से परेशान करता. खण्डेराव को सभी तरह की शिक्षा देने गुरूजन बाड़े आते परंतु उनका मन नहीं लगता. माता आहिल्या एक दिन अपनी सासू बाई से पूछा कि क्या मैं पढ़ा सकती हूं उन्होंने फटकार लगाई फिर अपने मित्र, अपने ससूर के पास पहुंची और पूछा में पढ़ना चाहती हूं. मैं क्यूं नहीं पढ़ सकती. ससूर जी ने कहां तुम पढ़ सकती हो. ससूर जी की इस फैसले से बाड़े में हड़कंप मचा दिया, अब तक तो काई लड़की पढ़ती नहीं थी फिर आहिल्या क्यू पढ़ेगी. तर्क वितर्क हुए अंत में सासू बाई ने निर्णय लिया कि हम तीन पहेलिया देंगे अगर उसे सुलझा लिया तो पढ़ सकती हो. अहिल्याबाई होल्कर को उनके शासनकाल में तीन प्रमुख पहेलियाँ मिलीं जिनमें राज्य की रक्षा, जनता का कल्याण और धार्मिक कार्यों का समर्थन. उन्होंने एक-एक कर तीनों सवालों के जवाब दिए और पास हो गई.
अब अहिल्या पति के साथ पढ़ने लगी. खण्डेराव को ये बिलकुल अच्छा नहीं लगता था पर धीरे-धीरे अपने व्यवहार से अपनी धैर्यता से उन्होंने अपने पति के व्यवहार में परिवर्तन लाया. अब दोनों पक्के दोस्त बन गए. खण्डेराव ने उन्हें तलवारबाजी, घोड़सवारी सिखाई. परंतु बाड़े में ताज के लिए षडयंत्रों ने हमेशा खण्डेराव को प्रभावित किया. खण्डेराव को कुछ दिनों के लिए बाहर भेज दिया गया शिक्षा प्राप्ती के लिए, वही आहिल्या अपने ससुर के मार्गदर्शन में शासन-प्रशासन सिखती रही. खण्डेराव का वापस आना उसके बाद माता अहिल्या को पुत्र, बाद में पुत्री की प्राप्ती हुई. उनका जीवन कभी सामान्य नहीं रहा उन्होंने हर क्षण कठिनाईयों का सामना किया और उसमें सफल होकर निकली. 29 वर्ष की आयु में उन्होंने अपने पति को खो दिया. अगले 10 वर्षों में पिता स्वरूप ससुर और अपने पुत्र को खो दिया. अपने निजी जीवन में इतना कष्ट सहने के बाद भी उन्होंने अपने दूसरे पुत्र मालेराव के प्रति कभी भी उदासीनता नहीं दिखाई. हर क्षण वह अपने राज्य की रक्षा, समृद्धि के लिए तत्पर रही.
उन्होंने अपने कार्यकाल में ऐसे कार्य किए जो आज 300 साल बाद भी उतने ही प्रासंगिक है. उन्होंने पानी की कमी व खेती की जरूरतों को देखते हुए कुंए खुदवाएं, बांध बनवाए. भगवान शिव की अनन्य भक्त ने कई मंदिर बनवाए तो कई मंदिरों का जीर्णोदार कराया. जिनमें से एक काशी विश्वनाथ का मंदिर है. उस समय उन्होंने विधवा विवाह भी कराया. समाज की कई कुरीतियों को चुनौती दी और अपनी बातों को तर्को व पुष्टि के माध्यम से सही साबित भी किया. उन्होंने उस समय महिला सशक्तीकरण की सिर्फ बात नहीं की बल्कि करके दिखाया. मालवा की राजधानी माहेश्वर में महिलाओं द्वारा वहीं से उत्पादित कपास से साड़ी बनाने का काम करवाया महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाया. आज के समय में जिसे हम महिला स्वसहायता समूह कह सकते है. आज भी माहेश्वर, माहेश्वरी शिल्प की साड़ियों के नाम से प्रसिद्ध है. आज भी माता आहिल्या का काम जीवित है. आज भी इंदौर का कण-कण अपनी उन्नति के लिए माता आहिल्या को धन्यवाद अर्पित करता हैं.
कई विरोधियों ने उन्हें अंधविश्वासी व धार्मिक अंधता युक्त कहां परंतु उनकी छवि को कोई धूमिल न कर सका. आज उनकी पुण्यतिथि पर मेरा मातोश्री को शत्-शत् प्रणाम. आज के बच्चों के लिए संदेश है कि हमारी धैर्यता मोबाईल में चलने वाले रील और शौर्ट की तरह हो चुकी है. हमें अपने इतिहास की ओर मुड़ कर देखने की आवश्यकता है. दयानंद सरस्वती जी ने कहा था “वेदो की ओर लौटो” मैं कहूंगी “किताबों की ओर लौटो” अपने इतिहास को देखो.