
भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में हजारों वीरों ने अपने प्राण गवाएँ और एक से बढ़कर एक कुर्बानियाँ दीं, लेकिन कुछ छोटी सोंच और जातिवादी मानसिकता के लेखकों और इतिहासकारों ने कभी उन हजारों शहीदों के नाम दुनिया के पटल पर आने ही नहीं दिया, जो भारत के मूलनिवासी जनजातियों से संबन्धित थे. आपने भगत सिंह, मंगल पांडे, चन्द्रशेखर आजाद, लक्ष्मीबाई के नाम तो खूब सुने होंगे लेकिन इन सबसे कहीं ज्यादा कुर्बानी देने वाले वीरों को जातिवादी और सामंती इतिहासकारों ने कभी भी इतिहास के पन्नों में उचित सम्मान और स्थान नहीं दिया. उन्हीं में से एक गोंडवाना के कोइतूर शहीद वीर नारायण सिंह बिंझवार गोंड हैं, जिन्होने आज ही के दिन इस देश पर अपनी जान कुर्बान कर दी थी.
सोनाखान रियासत जो आजकल छत्तीसगढ़ में स्थित है, कभी गोंडवाना 52 गढ़ों में एक लाफ़ागढ़ के अंतर्गत आता था. रतनपुर और सोनाखान कभी मंडला के कोइतूर गोंड राजाओं के महत्त्वपूर्ण गढ़ थे. सोनाखान का प्राचीन नाम सिंघगढ़ भी था और यह अपनी समृद्धि और वैभव सम्पदा के लिए पूरे मध्य भारत में काफी प्रसिद्ध था. महाराजा संग्राम शाह के ही संबंधी विरसैया ठाकुर वहाँ के राजा थे जो कल्चुरियों को हराकर गोंडवाना की सत्ता स्थापित किए थे.
उन्ही के वंश में फतेह नारायण सिंह नाम के एक महान राजा हुए थे जिनके बेटे का नाम राम राय था जो कोइतूरों के बिंझवार गोंड बिरादरी से थे. सन 1818 में जब भोंसले शासको और ईस्ट इंडिया कंपनी के के बीच संधि हुई तो अंग्रेजो ने राम राय से कर वसूलना चाहा जो कि उस रियासत की परंपरा के अनुरूप नहीं था क्योंकि गोंड राजाओं ने कभी किसी को कर नहीं दिया था चाहे किसी का भी राज रहा हो.
सन 1819 में सोनाखान के जमींदार राम राय अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्र संग्राम में कूद पड़े और अंग्रेजों के आँख का काँटा बन गए थे. राम राय की मृत्यु के पश्चात सोनाखान रियासत की ज़िम्मेदारी बेटे वीर नारायण सिंह बिंझवार गोंड को मिली.
शहीद वीर नारायण सिंह बिंझवार गोंड का जन्म 1795 में सोनाखान में हुआ था. सन 1830 में 35 साल की उम्र में उन्होंने सोनाखान की जमींदारी की कमान सम्हाली. अपनी रियासत के लिए उनका कार्य बहुत ही सराहनीय था जिसके कारण वो सोनाखान और आसपास के क्षेत्रों में बहुत ही प्रसिद्ध हो गए थे. उनके दिल में अंग्रेजों के प्रति नफरत पैदा हो गयी थी क्योंकि उन्होने अपनी आँखों के सामने अपने मजबूर पिता को पराजय स्वीकार करते हुए देखा था. वीर नारायण सिंह को वीरता, देशभक्ति और निडरता अपने पिता से विरासत में मिली थी. बचपन से ही वो धनुष बाण, मल्ल युद्ध, तलवारबाजी, घुड़सवारी और बंदूक चलाने में महारत हासिल कर चुके थे. आस पास के गोंड युवा वीर नारायण से टकराने की हिम्मत नहीं करते थे.
स्वभाव से परोपकारी, न्यायप्रिय तथा कर्मठ वीर नारायण जल्द ही लोगों के प्रिय जननायक बन गए. जिससे उनकी रियासत और आसपास के रियासतों के लोग अंग्रेजों के खिलाफ खुलकर उनका साथ देने लगे. इससे वीर नारायण सिंह को काफी बल मिला और वे ज्यादा मजबूती से अंग्रेजों का विरोध करने लगे. छत्तीसगढ़ में बहुत से जगहों पर वीर नारायण सिंह के हजारों समर्थक खड़े हो गए थे.
वीर नारायण सिंह के विद्रोही तेवर देखकर ब्रिटिश सरकार ने अपने बहुत ही तेज तर्रार अफसर मिस्टर इलियट (डिप्टी कमिश्नर रायपुर) को वीर सिंह को नियंत्रित करने के लिए भेजा. इलियट द्वारा कई बार समझाने बुझाने के बाद भी वीर नरायण सिंह के तेवर में कोई खास अंतर नहीं आया. वीर नारायण सिंह के बहादुरी और पराक्रम की घटनाओं में से एक बहुत ही ऐतिहासिक घटना है जिसने वीर नारायण सिंह गोंड को अमर कर दिया और इतिहास के पन्नों में उन्हें शहीद बना दिया. बात सन 1854 की है जब ब्रिटिश सरकार ने सोनाखान रियासत में भी टकोली लागू की तो वीर नारायण सिंह इसे जनविरोधी बताते हुए विरोध करने लगे और अपने रियासत के लोगों के साथ खड़े दिखे. सन 1856 में सम्पूर्ण मध्यभारत में भयंकर सूखा पड़ा जिससे उस वर्ष फसल बिल्कुल नहीं हुई जिससे जनता को भूखे मरने की नौबत आ पड़ी. सोनाखान में भी अकाल पड़ा और भुखमरी फैल गयी. रियासत के लोग वीर नारायण सिंह के पास अपनी फरियाद लेके गए और अन्न के लिए प्रार्थना करने लगे. वीर नारायण सिंह के गोदाम में जितना भी आनाज था सारा का सारा जनता में बाँट दिया लेकिन वह कुछ दिनों के लिए ही हो पर्याप्त हो सका.
वीर नारायण अपनी प्रजा को भूखा मरते देख कर परेशान हो गए. वे मजबूर होकर रायपुर के डिप्टी कमिश्नर इलियट को मदद करने के लिए पत्र लिखे, लेकिन इलियट मदद करने के बजाय उन्हे उत्तर में ये लिख कर भेजा कि “अगर हिंदुस्तानी मरते हैं तो मरने दो, मौत तो कुत्तों की भी होती है”. इस बात ने वीर नारायण को गुस्से से आग बबूला कर दिया और विद्रोह करने के लिए मजबूर कर दिया.
जनता की बुरी हालत देखकर उन्होने कर वहाँ के साहूकारों से भी अनाज उधार मांगा लेकिन साहूकारों ने अनाज उधार देने से मना कर दिया. यह बात वीर नारायण सिंह को बहुत बुरी लगी और अपनी रियासत की जनता की जान बचाने के लिए उन्होने बड़ा ही साहसिक निर्णय किया और अगले ही दिन कसडोल के व्यापारी माखन के गोदाम को जबरदस्ती खोल दिया और जनता से कहा कि अपनी जरूरत के अनुसार सभी लोग आनाज ले जाये मात्र दो दिनों में पूरा अन्न का गोदाम खाली हो गया. इसी क्रम में उन्होने एक ब्राह्मण साहूकार देवनाथ मिश्र जो किसानों का शोषण कर रहा था उसकी हत्या भी कर दी.
वीर नारायण के इस दुस्साहस और लूट के खिलाफ साहूकारों ने ब्रिटिश सरकार में रिपोर्ट दर्ज करवाई और फिर इलियट को वीर नारायण सिंह से बदला लेने का मौका मिल गया. वीरनारायण सिंह की शिकायत मिलते ही डिप्टी कमिश्नर इलियट कुर्रूपाट डोंगरी को सैनिक छावनी में तब्दील कर दिया और वीर नारायण को किसी भी हाल में कैद करने के लिए जुट गया. इस तरह ब्रिटिश शासन के कैप्टन स्मिथ ने उन्हें 24 अक्टूबर 1856 में संबलपुर से गिरफ्तार कर लिया और उन पर लूट, चोरी और हत्या का मुकदमा चलाने के लिए रायपुर जेल में बंद कर दिया.
जेल में कैद होने के बावजूद वीर नारायण सिंह ने अपना क्रांतिकारी और विद्रोही तेवर नहीं छोड़ा और बहुत सारे कैदियों को अपना बना लिया और उनमें भी विद्रोही तेवर की ज्वाला भड़का दी. कुछ कैदी दोस्तों की मदद से 27 अगस्त 1857 को वे रायपुर जेल के अंदर से सुरंग बनाकर बाहर आने में सफल हो गए और एक नए जोश के साथ 1857 की क्रांति में कूद पड़े. जेल से बाहर आकर उन्होने देशप्रेमी और देशभक्त जवानों की एक टुकड़ी गठित की और उन्हे ट्रेनिंग देकर सैनिक का रूप दिया. उस टुकड़ी में केवल 500 सैनिक थे लेकिन उन्ही पाँच सौ सैनिकों के साथ उन्होंने सोनाखान में स्वतंत्रता का बिगुल बजा दिया.
तीन महीनों तक उन्होने अंग्रेजों को चुन चुन कर मारना शुरू किया और अंग्रेजों में एक दहशत का माहौल पैदा कर दिया. कैप्टन स्मिथ ने अंग्रेज़ सैनिकों की एक टुकड़ी सोनाखान के लिए 20 नवंबर 1857 को भेजा. 26 नवंबर तक अंग्रेज़ सिपाही वहाँ के आसपास के साहूकारों, और जमींदारों को अपने पक्ष में करते रहे फिर 29 नवंबर को एक और टुकड़ी के साथ कैप्टन स्मिथ ने भी सोनाखान के बाहर डेरा डाल दिया.
1 दिसंबर 1857 को वीर नारायण सिंह गुरिल्ला और छापामार युद्ध के तरीके अपना कर अंग्रेजों पर धावा बोल दिया और कई अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया. लेकिन अगले कुछ दिनों में अंग्रेज और सिपाही गोले बारूद के साथ सोनाखान आ गए और वीर नारायण सिंह को चारों तरफ से घेर कर उनकी टुकड़ी की रसद पूर्ति को काट दिया. इस कार्य में कुछ गद्दार जमींदारों और साहूकारों ने अंग्रेजों का साथ दिया जिसके कारण वीर नारायण सिंह को पीछे हटकर एक जंगल में स्थित एक पहाड़ी पर शरण लेना पड़ा. अंग्रेजों ने सोनाखान में घुसकर पूरे नगर को आग लगा दी.
अपने रियासत की बरबादी और जलते हुए घरों को देख कर वीर नारायण सिंह से नहीं रहा गया और कैप्टन स्मिथ से सीधे टक्कर लेने के लिए अपने बचे हुए साथियों के साथ जंगल से निकल पड़े. उन्होने स्मिथ की सैनिक टुकड़ी पर धावा बोल दिया जिसमें स्मिथ बाल बाल बचा और बहुत बहादुरी के साथ लड़ते हुए वीर नारायण सिंह घायल हो गए. तभी अंग्रेजों ने उन्हे दबोच लिया और कैद करके उनपर देशद्रोह का मुकदमा चलाया. मुकदमे में वीर नारायण सिंह को मृत्युदंड दिया गया.
आज के ही दिन यानि 10 दिसंबर 1857 को ही इस महान गोंडवाना के सपूत को रायपुर के एक चौराहे पर सरेआम तोप से बांधकर उड़ा दिया गया. इस तरह की सजा को दिखाने के लिए अंग्रेजों ने भारतीय सैनिको को एकट्ठा किया था जिससे आगे कोई भी सैनिक दूसरा वीर नारायण सिंह बनने की जरूरत न कर सके.
वीर नारायण सिंह को छत्तीसगढ़ का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी का दर्जा प्राप्त है. इनके सम्मान में छत्तीसगढ़ सरकार ने भारत के दूसरे सबसे बड़े क्रिकेट स्टेडियम का नाम “शहीद वीर नारायण सिंह अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम” रखा है जो नया रायपुर में बना है. वर्ष 1987 में भारत सरकार ने एक डाक टिकट भी निकाला था जिसमें उन्हे तोप के मुंह से बंधा हुआ दिखाया गया है. छत्तीसगढ़ में ऐसे कई महाविद्यालय हैं जो शहीद वीर नारायण सिंह के नाम से हैं