
राकेश गुप्त निर्मल
मुंगेली जिले के पश्चिम में टेसुआ नाला के तट पर स्थित सेतगंगा एक पुरातात्विक एवं पौराणिक स्थान है. मंदिर के गर्भगृह में भगवान श्रीराम, जानकी व लक्ष्मण जी की प्रतिमा है. साथ ही भगवान शंकर, हनुमान, राधाकृष्ण, विश्वकर्मा व महामाया मंदिर है. यहां अनेक देवी देवताओं की प्रतिमा स्तंभो में उकेरी गई है. इसे देखने से ऐसा प्रतीत होता है जैसे देवताओं की सभा लगी है. शिवालय के पार्श्व भाग में उकेरी गई शिल्प कलायें, खजुराहों की कलाकृति की झलक देती है. कुण्ड का जल गंगा के समान पवित्र और पुण्यदायी माना जाता है.
सेतगंगा के नामकरण के लिए अनुमान है कि सेतगंगा “सेतुगंगा” हो सकता है, श्वेतगंगा नहीं क्योंकि अब से 30 वर्ष पूर्व तक यहां के कुण्ड के आस-पास जलस्तर एकदम सतह पर था. व्यक्ति को एक हाथ की गहराई में बावली, कुंओं से पेयजल पर्याप्त मात्रा में मिल जाता था. इसलिए भी नर्मदा कुण्ड से सेतुगंगा का नामकरण अधिक उपयुक्त जान पड़ता है.
पुरातात्विक, पौराणिक व ऐतिहासिक महत्व के इस धर्मस्थली में प्रतिवर्ष माघ पूर्णिमा में तीन दिवसीय मेले का आयोजन होता है. मेला क्षेत्र में फैले हाट बाजार वहां का आकर्षण हैं. तीन दिनों तक आने जाने वालों का जनसैलाब देखते बनता है. यहां का संचालन अखिल भारतीय श्रीपंच हरिव्यासी, निर्वाणी अखाड़ा, बंशीवट वृंदावन द्वारा होता है. यहां के पुजारी को महंत कहते है, जो ब्रम्हचारी व नागा होते हैं. यहां नवरात्रि के दोनों पक्षों में महामाया सिद्धेश्वरी मंदिर में ज्योति कलश प्रज्जवलित किया जाता है. भगवान जगन्नाथ जी की रथयात्रा प्रतिवर्ष आषाढ़ शुक्ल द्वितीय में विधिवत् निकाली जाती है. यहां की कुछ प्राचीन प्रतिमायें बिलासपुर संग्रहालय में सुरक्षित है वर्तमान में मंदिर परिसर से लगा हुआ संत गुरु घासीदास जी का श्वेत मंदिर व जैत खंभ का निर्माण कराया गया है, जो सुख शांति प्रदाता एवं सतनाम धर्मावलंबियों की निष्ठा का प्रतीक है.
यहां रावण को पूजते हैं, भगवान राम के द्वारपाल के रूप में
स्थानीय श्रद्धालु बताते हैं कि रावण को द्वार पर इस वजह से रखा गया है, ताकि लोगों को अपने भीतर का अहंकार मिटाने की प्रेरणा मिले. गर्भगृह के भीतर खंभों पर अद्भुत नक्काशीदार कलाकृतियां देखी जा सकती हैं.
स्थल से संबंधित किंवदंतियाँ
इस मंदिर का निर्माण 1751 में पंडरिया के जमींदार दलसाय सिंह ने करवाया था. वे बहुत ही दयालु, शांतिप्रिय एवं नर्मदा जी के अनन्य भक्त थे. प्राय: अमरकंटक जाकर कुण्ड में स्नान करते तथा नर्मदा जी की पूजा-अर्चना में लीन हो जाते, लेकिन वृद्धावस्था के कारण जब अमरकंटक जाने में असमर्थ हो गए तो उनका मन बड़ा व्यथित हुआ. तब अन्न, जल त्याग कर नर्मदा जी के सुमिरन में लग गये. एक रात मैया ने स्वप्न में उनके राजसीमा में प्रकट होने की बात कही. दूसरे दिन मुनादी करवाई गई. कुछ तलाश के बाद गंगा के समान पवित्र जल के बुलबुले के रुप में अवतरित नर्मदा को एक कुण्ड में सुरक्षित कराकर उसकी पवित्रता को प्रचारित किया गया. वहां एक बस्ती बसाई गई. कालांतर में यही स्थान सेतगंगा (सेतुगंगा) के नाम से प्रसिद्व हुआ. जनश्रुति अनुसार उस काल में जब हैजा का कहर मचा, तो कुण्ड में स्नान करने अथवा कुण्ड का जल छिड़कने से रोग से मुक्ति मिल जाती थी. वर्तमान में पदस्थ महंत जी को रात्रि में लगभग 2 बजे भगवान बजरंग बली जी का दर्शन हुआ. एक भक्त को गुप्त नवरात्रि (आषाढ़ मास) में माता महामाया ने दर्शन देकर कृतार्थ किया.
शहरी शोरगुल से दूर ग्रामीण परिवेश में स्थित सेतगंगा का पुरातन मंदिर व नर्मदा कुण्ड अपनी ऐतिहासिक कथाओं को समेटे हुए हैं. यहां के नैसर्गिक दृश्य जिंदगी की आपाधापी से त्रस्त मन को सुकून देते हैं तथा कुण्ड में स्नान करके नर्मदा स्नान का पुण्य लिया जा सकता है.