
प्रकृति के संरक्षण के साथ विकास ही सार्थक
डॉ. अनीता सावंत– वर्ष 2013 में केदारनाथ में आई आपदा को हम भूल नहीं सकेंगे. आज जोशीमठ लगभग इसी तरह खतरे में आ खड़ा हुआ है. भू-धंसाव के कारण जोशीमठ खतरे में पड़ गया है. स्वर्ग का द्वार कहे जाने वाले जोशीमठ पर प्रलय का संकट आ खड़ा हुआ है. वास्तव में यह आपदा मानवजनित है. जोशी है के आसपास बढ़ती आबादी का दबाव कहीं ना कहीं इसके लिए जिम्मेदार है. वहां रह रहे लोगों द्वारा उपयोग में आने वाले जल की समुचित निकासी की व्यवस्था नहीं होने के कारण भूमि दलदली हो रही है और जोशीमठ खिसकने की कगार पर आ गया है. जोशीमठ पर आया हुआ यह संकट इस बात का प्रमाण है कि प्रकृति के साथ हमारी छेड़छाड़ कितना विकराल रूप ले सकती है.
दरअसल यह उदाहरण है कि प्रकृति का रूप कितना जटिल है और इस पर हो रहे अंधाधुंध प्रहारो से उस पर कितना विपरीत असर पड़ रहा है. दरअसल इस तरह उत्पन्न परिस्थितियां पूर्णतः अनुत्क्रमणीय है, बल्कि खतरनाक भी है.
आज हम 21वीं सदी के तीसरे दशक म हैं और पर्यावरण पर पड़ रही चौतरफा मार के दुष्प्रभावों को देख रहे हैं, लेकिन क्या हम इसे केवल देखते ही रहेंगे? दुनिया भर में आबादी तेजी से बढ़ रही है. बढ़ती जनसंख्या के रहने, भरण पोषण और रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करने के लिए संसाधनों के एकतरफा दोहन का दौर जारी है.
वन संपदा, जल इंधन और खनिज संसाधन सभी का अधिकतम दोहन हो रहा है, बिना यह सोचे कि आगामी पीढ़ियों के पास इनके विकल्प क्या है? इस तरह प्राकृतिक संसाधनों के एकतरफा और निरंतर दोहन से प्रकृति और पर्यावरण पर क्या दुष्प्रभाव पड़ रहा है, हम इस संबंध में सोचना भी नहीं चाहते. यह कैसा विकास है? जिसकी निरंतरता की कोई गारंटी
नहीं है. जल स्त्रोत सूख रहे हैं या प्रदूषित हो रहे हैं, तालाब जो प्राकृतिक संसाधनों के | जल स्रोतों का ऐसा अहम हिस्सा हुआ करते थे, जिनमें वर्षा का जल न केवल संग्रहित | होकर दिनचर्या के लिए उपलब्ध होता था, | बल्कि अन्य भूमिगत जल स्त्रोतों की रिचार्जिंग भी इसके माध्यम से होती थी. लेकिन उनमें से अधिकांश तालाब भूमि की उपलब्धता के लिए पाट कर समतल कर दिए गए हैं. इन पर कॉक्रीट के जंगल खड़े कर दिए गए हैं. बिना किसी मापदंड के बनाए जा रहे कॉक्रीट के ये जंगल प्रकृति से सर्वथा दूर है. इसलिए यहां रहने वाले लोग आए दिन स्वच्छ पर्यावरण की अनुपलब्धता से जूझते रहते हैं.
वहीं अदृश्य हो रहे तालाबों के साथ ही भूमि की सतह और सतह के भीतर उपलब्ध भूमिगत जल की मात्रा कम होती जा रही है. आलम ये है कि गिनती के बचें गंदगी और सिल्ट से पटे हुए हैं, जो ना तो सतह हुए तालाब पर जल स्त्रोतों के रूप में उपयोग के योग्य रह गए हैं और न भूमिगत जल स्रोतों को रिचार्ज करते हैं. तालाबों के अतिरिक्त वनो की निरंतर कटाई के कारण भी पर्यावरण असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो चुकी है. अनियंत्रित और अनियमित औद्योगिकरण और विभिन्न मानवीय गतिविधियों के कारण उत्पन्न ग्लोबल वार्मिंग की समस्या आज विश्वव्यापी है. मौसमके परिवर्तन का चक्र इस तरह घूम रहा है कि फरवरी माह के बीतते-बीतते गर्मी का मौसम आ जाता है, बसंत तो ना जाने कहां लुप्त हो गया है. यह चिंताजनक बात है कि मार्च माह के आरंभ में ही राजस्थान, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के अनेक शहरों में पारा 40 डिग्री सेल्सियस के पार पहुंच गया है. हमारे प्रदेश में भी दोपहर का तापमान इन दिनों काफी बढ़ गया है, जो औसत से 3 डिग्री सेल्सियस ज्यादा है. ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के कारण एक ओर जहां वातावरण का तापमान बढ़ रहा है तो वहीं दूसरी ओर वातावरण की नमी धीरे-धीरे कम हो रही है, जिससे मौसम में शुष्कता बढ़ रही है. इस वजह से जमीन की मरुस्थलता या रेतीलापन बढ़ रहा है. जलवायु परिवर्तन का सीधा असर फसल की कुल पैदावार और उसकी गुणवत्ता पर भी पड़ रहा है. फसल चक्र के जल्दी पूरे हो जाने के कारण फसलों के दाने छोटे रहते हुए ही परिपक्व हो जाते हैं. जिसके कारण उनके आकार और वजन में कमी देखी गई है. जिसका सीधा असर खाद्यान्न उत्पादन पर पड़ रहा है.
पर्यावरण प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग के कारण उत्पन्न हुई परिस्थितियों की वजह से लोगों के स्वास्थ्य पर भी विपरीत असर पड़ रहा है. बढ़ती हुई बीमारियों के कारण प्रतिवर्ष इनके इलाज में ही करोड़ों रुपए लग
जाते हैं. यही नहीं, बीमारियों के इलाज के लिए कर्मचारियों के छुट्टी लेने की वजह से न जाने कितने काम व कितने दिनों का नुकसान होता है. प्रत्यक्ष रूप से इससे हमारा विकास बाधित होता है. प्रकृति और पर्यावरण के प्रति लापरवाह रहते हुए यदि हम एकतरफा आर्थिक विकास के बारे में सोचते हैं तो यह हमारी सबसे बड़ी भूल है. हमें नहीं भूलना चाहिए कि प्राकृतिक असंतुलन के कारण आने वाली प्राकृतिक आपदाएं चाहे भूस्खलन के रूप में हो या बाढ़, सूखा, चक्रवाती तूफान या सुनामी के रूप में इनसे हमारे तथाकथित विकास के स्मारक क्षणभर में ढह जाते हैं और लोगों को निजी संपत्ति का तो नुकसान होता ही है, उन्हें अपनी जान तक गंवानी पड़ती है. क्या ये समझने के लिए पर्याप्त नहीं है कि हम प्रकृति की महत्ता को स्वीकार करें. प्रकृति के विभिन्न अवयव जैसे-जैसे हमारी प्रकृति के एकतरफा दोहन की प्रवृत्ति के कारण नष्ट हो रहे हैं, वैसे-वैसे हमारे पर्यावरण के समक्ष नई चुनौतियां उत्पन्न हो रही हैं. अब समय आ गया है कि हम प्रकृति के महत्व को समझें और उसका संरक्षण करते हुए ही अपने विकास का मार्ग प्रशस्त करें. तभी हमारा विकास चिरस्थाई विकास हो सकेगा.
अदृश्य हो रहे तालाबों के साथ ही भूमि की सतह और सतह के भीतर उपलब्ध भूमिगत जल की मात्रा कम होती जा रही है. आलम ये है कि गिनती के बचे हुए तालाब गंदगी और सिल्ट से पटे हुए हैं, जो ना तो सतह पर जल स्त्रोतों के रूप में उपयोग के योग्य रह गए हैं और न भूमिगत जल स्रोतों को रिचार्ज करते हैं.