
मैं सिरपुर सर्वाधिक उपेक्षा का दशक, क्या कभी पहचान मिलेगी ?
महासमुंद- पाँचवीं शताब्दी में चीनी यात्री फाह्यान, सातवीं शताब्दी में व्हेन्त्सांग दसवीं शताब्दी में सांग युन और 11 वीं शताब्दी में फारसी यात्री अल बरुनी ने मेरी यात्रा की और मेरी सामाजिक सांस्कृतिक और धार्मिक चरित्रों का वर्णन अपने वृत्तांतों में लिखकर दुनिया को मेरे बारे में बताया. मैं खुश था कि दुनिया में सबसे बड़े बौद्ध शिक्षा केन्द्र और हिन्दू, जैन और बुद्ध धर्मों के एक साथ सहअस्तित्व के रुप में मेरी पहचान स्थापित हुई थी. 12वीं शताब्दी तक के मेरे वैभव को प्रचारित भी किया गया लेकिन किन प्राकृतिक आपदाओं ने मुझे जमींदोज कर दिया और अठारहवीं शताब्दी तक का मेरा इतिहास आज भी रहस्य ही है.
भारतीय प्रातत्व का जनक कहलाने वाला ब्रिटिश सैन्य अधिकारी कनिंघम 1882 में जब यहाँ आया तब उसने मेरे लाल ईटों से बने अद्भुत लक्ष्मण मंदिर और एक जीवन्त गंधेश्वर महादेव मंदिर को देखा, दुनिया मुझे देखे और जाने इसकी आस उसने जगाई. लेकिन क्या …. आजाद भारत में 1953 से 1956 के बीच पुनः 1999 में और आखरी बार 2004 से 2011 के बीच उत्खनन का दौर चला और मुश्किल से मैं 20 प्रतिशत ही जमीन से बाहर आ सका था कि पुनः उत्खनन रोक दिया गया. लेकिन यही वह दौर था जब लोग जान सके कि मैं नालंदा से भी ज्यादा विहारों वाला और दुनिया का सबसे बड़ा बौद्ध क्षेत्र हूँ और जहाँ हिन्दू और जैन धर्म भी पूरे सम्मान के साथ विश्व बंधुत्व की माला में पिरोये हुए हैं.
राज्य के अलग होने के बाद मुझे बड़ी आस थी कि अब मुझे पहचान मिलेगी लेकिन उत्खननकर्ताओं के अतिउत्साह, सरकार का मेरे प्रति बेपरवाह होने के कारण मेरे पुरातत्व वैभव के साथ ऐसी खिलवाड़ हुई कि मैं बदनाम फरिश्ता बन गया. एक बार फिर मुझे आस जगी जब 2014 में मेरे प्रति सरकार की सजगता बढ़ी और 2015 में विशेष क्षेत्र विकास प्राधिकरण मेरे नाम पर बनाकर सरकार ने मेरी तरफ ध्यान दिया. लेकिन यह शायद मेरे साथ एक और छलावा ही था जब यहाँ नृत्य के उत्सव और सिरपुर महोत्सव जैसे आयोजन होने लगे. मेरे सीने पर पर्यटन केन्द्र और रिसार्ट का निर्माण होने लगा जिससे अवैध कब्जों की बाढ़ आ गई सरकारी भवन निजी रिहायशी और व्यवसायिक भवन पेट्रोल पंप, बेतरतीब बिजली के खंबे और ट्रांसफार्मर मुझ पर स्थापित कर दिये गए और मेरा सबसे बड़ा मजाक तो तब हुआ जब सरकार ने मेरे मुख्य स्वागत् द्वार पर ही सरकारी शराब की दुकान खोलकर रख दी है, शासन प्रशासन पर से मेरा भरोसा उठ चुका था क्योंकि साडा बनने के बाद भी पंचायतों का अस्तित्व बना रहा और वोट बैंक की राजनीति में साडा के चौंतिस गाँवों में जनप्रतिनिधियों और शासन के अधिकारियों ने पट्टे, भवनों के निर्माणों और अनियंत्रित तथा अनियमित विकास को लगातार प्रोत्साहित कर मेरे दिल को बुरी तरह से आहत किया है.
अब एक अंतिम आस जगी है जब वैज्ञानिकों, वास्तुविदों, पुरातत्वविदों और मानव शास्त्र तथा जैव विविधता के जानकारों के दल ने सर्वेक्षण और परीक्षणों का दौर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, पर्यटन, संस्कृति और वन विभाग के परस्पर समन्वय के साथ आरंभ किया है, अब भी संभावना ही है कि राज्य सरकार उसके मंत्री, विधायक और अधिकारियों की लंबी नींद टूटेगी और आने वाले 4 से 5 वर्षों मे मैं विश्व विरासत के रुप में अपनी पहचान बना सकूंगा.
प्रश्न यही है कि जब राजिम में प्रतिवर्ष मेले के नाम पर करोड़ों रूपये खर्च किये जा सकते हैं और प्रदेश भर में पर्यटकों के लिए करोड़ों के भव्य होटल तीर्थयात्राओं के नाम पर सरकार करोड़ों खर्च कर सकती है, अरबों का कर्ज लेकर नवा रायपुर, रायपुर और गृहनिर्माण मंडल जैसे परियोजनाओं को संचालित कर सकती है तो क्या अपनी विरासत को बचाने संवारने और विश्व में राज्य व देश की पहचान बनाने के लिए कुछ नही कर सकती ?