
चोरी के भय से वर्षों तक गुड़ी में बंद रही माता की यह प्रतिमा
हेमंत कश्यप/जगदलपुर- उत्तर बस्तर की कांकेर नगरी में दूध नदी के किनारे मां सिंहवाहिनी की प्रतिमा अत्यंत दुर्लभ है. यह प्रतिमा दुर्गा और काली का संयुक्त रूप है. ऐसी प्रतिमा भारत में सिर्फ दो जगह कांकेर और कोलकाता में है. इस विलक्षण प्रतिमा के चोरी न हो जाए, इसलिए रियासत काल से लेकर वर्ष 1972 तक यह मूर्ति करीब 50 वर्षों तक एक गुडी में बंद रही. कांकेरवासियों की तत्परता से यह मूर्ति पुन: जन सामान्य के सामने आ पाई. जिस स्थान पर कभी छोटी से गुड़ी हुआ करती थी. वहां अब मां सिंहवाहिनी का भव्य मंदिर है.
गढ़िया पहाड़ के नीचे
कांकेर नगर का राजापारा ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व रखता है. यहां दूध नदी के किनारे करीब 600 साल पुरानी मां सिंहवाहिनी की गुड़ी थी. इस गुड़ी में विराजित काले चट्टान में उकेरी गई मां सिंहवाहिनी की प्रतिमा विलक्षण थी. यह मूर्ति मां दुर्गा और काली का संयुक्त रूप है.
चुरा कर ले जाना चाहते थे तांत्रिक
रियासत काल में तांत्रिकों द्वारा इस मूर्ति को ले जाने और देवी को जागृत करने के उद्देश्य से कई बार चोरी का प्रयास किया गया. वहीं राजाओं में आपसी मतभेद के चलते इस गुड़ी में विराजित मूर्ति को मिट्टी से ढंककर द्वार में मजबूत ताला जड़ दिया गया. जब तक यह गुड़ी खुली रही, तब तक हर वर्ष यहां भैंस की बलि दी जाती रही.
50 साल बाद पुन: दर्शन
बताया गया कि लगभग 50 वर्षों तक यह गुड़ी बंद रही. वर्ष 1972 में वरिष्ठ पत्रकार स्व. बंशीलाल शर्मा और कांकेर वासियों के प्रयास से सिंहवाहिनी गुड़ी का ताला तोड़ तथा मिट्टी हटवा कर गुड़ी का शुद्धिकरण किया गया. इसके साथ ही मांईजी की पूजा- अर्चना 50 साल बाद फिर शुरु हो पाई. समय के साथ- साथ इस गुड़ी की लोकप्रियता पूरे देश में फैली.
600 साल से भी पुरानी
पुरातत्व वेत्ता जेआर भगत बताते हैं कि मां सिंहवाहिनी की प्रतिमा 600 साल से भी अधिक पुरानी है. सिंहवाहिनी की जैसी प्रतिमा कांकेर में है, ठीक इसी तरह की प्रतिमा कोलकाता में है, इसलिए यह प्रतिमा अपने आप में दुर्लभ और विलक्षण है. ज्ञात हो कि विलक्षण होने के कारण ही बस्तर की ऐसी कई प्रतिमाएं गायब हो चुकी हैं.
राजपूत का महत्वपूर्ण योगदान
अब यहां प्रति वर्ष शारदीय और चैत्र नवरात्र में भक्तों के सैकड़ों मनोकामना ज्योति कलश प्रज्वलित होते हैं. सिंहवाहिनी गुड़ी को भव्य मंदिर बनवाने में स्व. हेमंत सिंह राजपूत का महत्वपूर्ण योगदान रहा. वह सिंहवाहिनी मंदिर समिति के संरक्षक थे. उनके प्रयास तथा जन सहयोग के चलते जिस स्थान पर कभी छोटी सी मातागुड़ी हुआ करती थी. अब वहां भव्य मंदिर है.