
रश्मि पुरोहित, भिलाई नगर
प्राचीनतम ऐतिहासिक नगरी खल्लारी छत्तीसगढ़ के महत्वपूर्ण धार्मिक स्थलों में से एक है. शिलालेख कलाकृतियों व पुरातात्विक महत्व के अवशेष के दृष्टिगत यह अंचल भारत ही नहीं वरन् सम्पूर्ण विश्व के सर्वाधिक प्राचीनतम स्थल खण्ड गोंडवाना का ही एक भाग है जो पुराण युग (पूर्व केम्ब्रयन) युग में निर्मित हुआ था. मंदिर परिसर एवं ग्राम शिलालेख से ये मंदिर सन् 1415-16 ई. का है. कहा जाता है राजा हरिब्रह्मदेव ने खल्लारी को अपनी राजधानी बनाया तो उसकी रक्षा के लिये माँ खल्लारी की मूर्ति स्थापना की. ऐतिहासिक नगरी खल्लारी अर्जुन पुत्र बब्रवाहन जो पाण्डव वंश का राजा था, का शासन तत्कालीन श्रीपुर में 11वीं शताब्दी तक था. धार्मिक दृष्टिकोण से माँ खल्लारी की उपासना साधना करने वालों के लिये माँ खल्लारी देवी का विशिष्ट स्थान हैं सच्ची श्रद्धा से माँ के श्री चरणों में मांगी गई मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है.
खल्लारी का तात्पर्य है खल + अरी अर्थात् शत्रओं का नाश करने वाली. माँ खल्लारी मंदिर में अनेकों किंवदंतियाँ प्रचलित है आज से लगभग 300 वर्ष पूर्व बेमचा (महासमुंद) में नायक (बंजारा) जाति के लोगों का आधिपत्य था जो आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न और समृद्धशाली माने जाते थे. इन्हीं नायक राजा के द्वारा बेमचा में बालाजी का मंदिर बनाया गया. जिसके अंदर से होकर सीढ़ियों द्वारा बावली में जाने का रास्ता है. इसी मंदिर के बीच एक चबूतरा स्थान है जो खुला हुआ है. इसी स्थान पर बैठकर राजा नायक अपनी रानी के साथ मनोरंजन हेतु पाशा खेलते बारा प्राकृतिक दृश्यों का आनन्द लिया करते थे. कहा जाता है कि इस मंदिर परिसर में विशाल साप्ताहिक बाजार लगता था और माँ खल्लारी नवयवती का रूप धारण कर बाजार भ्रमण के लिये आया करती थी.
किंवदंती के अनुसार नायक राजा का मन माँ के सौन्दर्य पर आसक्त हो गया और वह राजहठ द्वारा उन्हें पाने की लालसा करने लगा. माँ ने उसे विभिन्न तरिको से अहसास कराया कि तू जिसे पाने की चेष्ठा कर रहा है वह साधारण नारी नहीं वरन् तुम्हारे गांव बेमचा की रक्षिका कुलदेवी खल्लारी माता हूँ. परन्तु कामांध राजा माँ के साथ अमर्यादित आचरण करने लगा. तब कुपित हो माँ ने श्राप दिया कि आज से तुम्हारा राज-पाठ, धन-वैभव, कुटुम्ब-परिवार सब कुछ नाश हो जाएगा.
जनश्रुति के अनुसार रानी उसी समय वहां पहुंची तथा माँ के साथ राजा का कुकृत्य उससे देखा नही गया और वह बावली में कूद गई. आत्मग्लानि से व्यथित राजा ने लोक-लाज और लोक-निंदा के भय से तत्क्षण ही बावली में कूदकर आत्मलीला समाप्त कर ली. कहा जाता है कि राजा-रानी के पूरे परिवार ने उसमें कूदकर जान दे दी. माँ खल्लारी ने उसी दिन पाषाण रूप धारण कर लिया. वर्तमान में मंदिर परिसर में बावली और मंदिर आज भी मौन स्वरूप में राजा और माता की कहानी दोहराते हैं. बेमचा बस्ती की पूर्व दिशा में माँ खल्लारी का मंदिर है जहां प्रति वर्ष चैत्र पूर्णिमा को मेला लगता है. श्रद्धा-सुमन अर्पित करने विभिन्न स्थानों से माता के भक्त यहां आते हैं. यहां प्रबंध कमेटी एवं ग्राम वासियों के सहयोग से ज्योति कक्ष का निर्माण कराया बया है. नवरात्रि में माँ के शिलाखंडों के बीच से माता के दरबार में पहुंचकर भक्त माता के दर्शन लाभ लेते हैं.
ग्राम खल्लारी में प्रवेश करते समय एक मंदिर नीचे भी स्थित है जिसे नीचे वाली माता का मंदिर या शहर कहते हैं, यहां के पूर्व मालगुजार को पहाड़ पर स्थित माता ने स्वप्न में आदेश दिया था कि मेरे द्वारा फेकी गई कटार जहां गिरी है वहीं पर मूर्ति स्थापना कर पूजा प्रारम्भ की जाए, ताकि वृद्ध और कमजोर भक्तजन पहाड़ पर चढ़ नहीं पाये तो भी उन्हें पुण्य की प्राप्ति हो सके. माता द्वारा फैकी गई कटार आज भी मंदिर में स्थित हैं. ग्रामीण द्वारा प्राण प्रतिष्ठा के समय लगाये गये पाँच पेड़ आज सेमल व नीम के गगनचुम्बी वृक्ष बन चुके हैं, इन्हीं पेड़ों के बीच माता का मंदिर स्थित है.
माता के मंदिर से पहले सिद्धबाबा (भगवान शंकर) की पूजा क्षेत्र के आदिवासी बैगाओं द्वारा की जाती है. यह स्थान आदिवासी शासकों के अधिपत्य में होने के कारण यहाँ मुख्य पुजारी सिदार जाति के हैं, बलि प्रथा प्राचीनकाल में प्रचलित थी जो बंद हो चुकी है. सन् 1986-87 में यहाँ विद्युतीकरण कराया गया जिससे रात्रि में भी पहाड़ पर चढ़ने में आसानी होती है. कहा जाता है कि महाभारत कालीन पाण्डवों ने अपने वनवास का कुछ समय यहाँ व्यतीत किया था. माता दर्शन के बाद भी यहाँ अनेको दर्शनीय स्थल मौजूद हैं.
भीमपांव :- परिक्रमा के दौरान मनुष्य के पद की आकृति का बहुत बड़ा चिन्ह है इसमें पूरे वर्ष भर पानी भरा रहता है, पूर्व में पहाड़ों पर जल आपूर्ति का यही एक मात्र स्त्रोत था.
सिद्ध बाबा मंदिर गुफा :- आदिवासी बैगाओं द्वारा सर्वप्रथम पूजा यहीं की जाती है. भीम चूल्हा से आगे सिद्ध बाबा की इस गुफा में उनकी मूर्ति स्थापित हैं.
भीम चूल्हा :- वनवास के दौरान भीम इस चूल्हे पर खाना बनाया करते थे. पहाड़ी पर चूल्हे की आकृति की तरह बना यह गढ्ढा सदैव सूखा ही रहता है.
पत्थर की नॉव :- पश्चिम दिशा में नॉव की आकृति का यह पत्थर आधा मैदान की ओर तो शेष भाग सैकड़ो फिट गहरी खाई में झुका हुआ है. जो एक छोटे से पत्थर पर संतुलित है. इसके ठीक सामने गस्ती के विशाल वृक्ष के नीचे एक पत्थर के सामने जमीन पर ठोंकने से हर स्थान से अलग-अलग आवाजें आती है. एक स्थान पर जमीन खोखली होने का आभास होता है. यहां छोटे-छोटे पत्थर से ठोक-ठोक कर पर्यटक गण विभिन्न प्रकार की आवाजों का आनन्द लेतें हैं.
हाथी-हथनी पहाड़ :- भीम पांव के दक्षिण-पश्चिम में कुछ दूरी पर हाथी-हथनी आकृति की दो विशाल शिला है इसे नायक राजा के हाथी कहा जाता है. नीचे खल्लारी आगमन के समय वहाँ के विद्युत मण्डल कार्यालय व स्कूल के समीप देखने से यह हाथी के जोड़े के समान दिखाई पड़ते हैं.
जलधारा :- भीम चूल्हा के बगल से निकलने वाली यह जलधारा पहाड़ों के अन्दर से होकर पूर्व दिशा के बीच में दिखाई पड़ती है.
पहुँच मार्ग :- छत्तीसगढ़ की प्राचीन राजधानी खल्लारी हैहय वंशी कलचुरी राजाओं की 14वीं शताब्दी में राजधानी के रूप में प्रसिद्ध थी, यहां पहुंचने के लिये रायपुर से 80 कि.मी. आरंग-खरीयार मार्ग पर बागबहरा विकासखंड में लगभग 8-10 कि.मी. की दूरी पर यह खल्लारी गांव स्थित है.
अन्य दर्शनीय स्थल :- भीम पांव, भीम चूल्हा, हाथ-हथनी पहाड़, सिद्धबाबा, पत्थर की नाव, जलधारा, लाक्षागृह, नंगाड़ा पत्थर, मां चण्डी देवी पंचापाली बागबाहरा, गढ़फुलझर, पतई माता, शिशुपाल पर्वत आदि.
आवासीय सुविधा :- जिला मुख्यालय महासमुंद एवं राजधानी रायपुर में छ.ग. शासन का रेस्ट हाउस व उच्च एवं मध्यम स्तरीय हॉटल एवं लॉज की व्यवस्था, विकासखंड बागबहरा में मध्यम कोटि के लॉज की सुविधा उपलब्ध है.