महिला आरक्षण कहीं बन न जाए गले की फांस, झेलनी पड़ सकती है कट्टर समर्थकों की नराजगी
लखन लाल भिलाई-
अपना दूसरा कार्यकाल पूरा करने से पहले ही केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार को यह समझ में आ गया है कि भारतीय राजनीति में आरक्षण का एक महत्वपूर्ण स्थान है. इसलिए अब उसने उसी आरक्षण का शिगूफा उछाला है, जिसका सिद्धांततः वह अब तक विरोध करती रही है. आरक्षण को वह तुष्टिकरण मानती है. भाजपा के कट्टर समर्थकों में भी ऐसी विचारधारा के लोगों की बहुतायत है. महिला आरक्षण विधेयक को भले ही लोकसभा और राज्यसभा ने पारित कर दिया हो पर अकेले छत्तीसगढ़ के आरक्षण बिल का मामला ही उसकी मंशा की पोल खोलने के लिए काफी है. दरअसल, मोदी सरकार कांग्रेस के बिछाए जाल में फंस गई है. महिला आरक्षण बिल से जातीय जनगणना के मुद्दे को भी हवा मिल गई.
महिला आरक्षण ( नारी शक्ति वंदन अधिनियम) विधेयक को लेकर केन्द्र पर वही कहावत चरितार्थ हो गई कि “चले थे हरिभजन को ओंटन लगे कपास” जिस महिला आरक्षण विधेयक से भाजपा आधी आबादी को साधने चली थी, अब वह कोटे की राजनीति में उलझ गई है. मोदी सरकार ने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि बिना जनगणना और परिसीमन के बिना इसे अभी लागू नहीं किया जा सकता. संभावना जताई गई है कि 2029 के लोकसभा चुनाव में महिलाओं को आरक्षण का लाभ मिल जाएगा. पर यह डगर इतनी आसान भी नहीं है. महिला आरक्षण में ओबीसी कोटे को लेकर दुविधा को इस तरह समझा जा सकता है. ऐसे सभी राजनीतिक दल हमेशा ओबीसी कोटे के खिलाफ रहे हैं जिन्हें सवर्णों का समर्थन रहा है. पहले यह समर्थन कांग्रेस के पास था जो अब भाजपा के पास है. 1996, 2002, 2003 और 2008 में इस बिल पर कोई सहमति नहीं बन पायी. 2010 में महिला आरक्षण बिल राज्य सभा से पास हो गया लेकिन लोक सभा में पिछड़े नेताओं के विरोध के कारण मामला अटक गया. इसका कारण यह है कि सवर्णों को हमेशा से ऐसा लगता रहा है कि ओबीसी को आरक्षण देने से राजनीति में उनका वर्चस्व समाप्त हो जाएगा. देश की आबादी में लगभग 60 फीसद की संख्या ओबीसी वर्ग की है. इसलिए महिला आरक्षण का बिल जब-जब लाया गया, बिना ओबीसी कोटे केही लाया गया.
यह है ओबीसी कोटे का गणित
बिना ओबीसी कोटे के महिला आरक्षण देने पर संभावना यही है कि सवर्ण महिलाएं ही इन सीटों पर क जा कर लेंगी. अगर ओबीसी कोटा तय कर दिया गया तो ये सीटें ओबीसी के खाते में चली जाएंगी. 2008 में परिसीमन आयोग द्वारा जारी आदेश के अनुसार लोकसभा में 412 सीटें सामान्य, 84 सीटें अनुसूचित जाति और 47 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं. ओबीसी को आरक्षण मिला तो सामान्य की सीटें काफी कम हो जाएंगी. 2019 के चुनावों में क़रीब 15 प्रतिशत (80) महिलायें जीत कर आयीं. आरक्षण के बाद महिलाओं की संख्या कम से कम 180 हो जाएगी. विधान सभाओं में महिलाओं की संख्या क़रीब 10 प्रतिशत ही है. कोटा इस गणित को बदल सकता है.
आबादी के अनुपात में नहीं मिला प्रतिनिधित्व
ओबीसी वर्ग और आरक्षित जातियों-जनजातियों के बीच एक बड़ा फर्क है. ओबीसी वर्ग में बड़ी संख्या में ऐसे समुदाय आते हैं जो आर्थिक रूप से समृद्ध हैं. अनेक राज्यों में ओबीसी वर्ग उच्च शिक्षित भी है. पर उन्हें आबादी में उनके अनुपात के हिसाब से कभी राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं मिला. लोकसभा में कुल 543 सदस्य होते हैं. इनमें से 131 सीटें एससी/एसटी के लिए आरक्षित हैं. वर्तमान में 232 हिंदू सवर्ण जातियों के हैं. जबकि लगभग 50 फीसदी आबादी वाले ओबीसी जातियों के सांसदों की संख्या महज 120 है. विधान सभाओं में 27 फ़ीसदी और विधान परिषदों में 40 प्रतिशत पिछड़े वर्ग से हैं
इसलिए उठी ओबीसी कोटे की मांग
पिछले दो लोक सभा चुनावों में बुरी तरह हार के बाद कांग्रेस पिछड़ों की वोट शक्ति समझ चुकी है. 2019 के चुनावों में राहुल गांधी ने जनेउ दिखाया, ख़ुद को कश्मीरी ब्राह्मण घोषित किया लेकिन सवर्ण कांग्रेस के साथ नहीं आए. वैसे भी अकेले सवर्णों की संख्या इतनी नहीं है कि उससे चुनावी वैतरणी पार लग सके. देश का सबसे बड़ा वर्ग ओबीसी का है. इसलिए 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में मोदी को उनके ओबीसी नहीं होने के मुद्दे पर घेरने की कोशिश की गई। थी. पर तब कांग्रेस समेत बाकी बड़े दलों ने मुंह की खाई थी. कांग्रेस अब सत्ता से बाहर है और उसके साथ आईएनडीआईए गठबंधन में पिछड़ों के नेतृत्व वाली पार्टियाँ ज़्यादा मज़बूत हैं इसलिए कांग्रेस अब पिछड़ों के कोटा का समर्थन कर रही है. ओबीसी कोटा इनकी एकता का आधार बन सकता है.
केन्द्र के निशाने पर छत्तीसगढ़ के ओबीसी
जैसे कि पहले ही लिखा जा चुका है कि छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा पारित आरक्षण विधेयक को पहले पूर्व राज्यपाल अनुसुइया उइके ने रोके रखा और अब वर्तमान राज्यपाल विश्व भूषण हरिचंदन भी इसपर फैसला नहीं ले पा रहे हैं. छत्तीसगढ़ लोकसेवा आयोग पर चयन प्रक्रिया में धांधली का आरोप लगा दिया गया. इसकी वजह भी शायद यही थी कि इस बार इस परीक्षा में बड़ी संख्या में ओबीसी और एसटी वर्ग के बच्चे चुनकर आए थे. इसे पचाना उन लोगों के लिए मुश्किल हो गया था जो शीर्ष पदों पर केवल खुद को देखना चाहते हैं. इनमें से कुछ अभ्यर्थियों के पालकों का उच्च पदस्थ होना इनकी काबीलियत और तैयारी पर सवालिया निशान लगा गया. भाजपा ने इस मामले को उठाने के लिए ननकी राम कंवर के कंधों पर रखकर बंदूक चलाई. इस मामले में वो हारें या जीतें, राजनीतिक नुकसान उनका ही होना है. एक ऐसे ही पैंतरे के तहत दुर्ग के वर्तमान सांसद विजय बघेल को पाटन में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के सामने उतारा गया है. जबकि मुख्यमंत्री जैसे कद्दावर नेता के खिलाफ उतारने के लिए उनके पास जिले में ही पार्टी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं सांसद सरोज पाण्डे जैसे चेहरे हैं, लेकिन मुख्यमंत्री के खिलाफ विजय बघेल को उतारकर उसने एक तीर से दो निशाने साध लिये हैं. इस लड़ाई में जो जीतेगा वो ओबीसी और जो हारेगा वो भी ओबीसी यदि विजय बघेल पराजित हो जाते हैं कि संसदीय सीट पर भी उनका दावा खत्म हो जाएगा. ओबीसी को ओबीसी से लड़ाकर कमजोर करना भी भाजपा की
कूटनीतिक रणनीति का हिस्सा है. छत्तीसगढ़ में ईडी छापों को भी गौर से देखें तो पाएंगे कि इसमें निशाने पर सर्वाधिक ओबीसी ही हैं. इनमें मुख्यमंत्री के राजनीतिक सलाहकार विनोद वर्मा, ओएसडी आशीष वर्मा, मनीष बंछोर, भिलाई नगर विधायक देवेन्द्र यादव के नाम प्रमुख हैं. ये सभी ओबीसी वर्ग के हैं.
कुलपति नियुक्ति मामले में भी सरकार जहां योग्यता और अनुभव के आधार पर स्थानीय लोगों की नियुक्ति कुलपति पद पर करना चाहती थी वहीं राज्यपाल अनुसुइया उइके को इन अभ्यर्थियों के एक ही वर्ग से होने पर आपत्ति थी. दरअसल, वे केन्द्र के एजेंडे को आगे बढ़ाने की कोशिश करती रहीं जिसके तहत संघ मानसिकता के लोगों को विश्वविद्यालयों की कमान सौंपी जानी है. राज्यपाल अनुसुइया उइके ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा था, ये मेरी संविधानिक जिम्मेदारी है. मेरिट के आधार पर अनुभवी कुलपति की नियुक्ति होगी. छत्तीसगढ़ के 14 विश्विद्यालयों में केवल एक ही समाज के कुलपति हैं. इस बारे में मुझे नहीं कहना चाहिए लेकिन कुलपति स्थानीय हो तो सभी समाज को मौका मिलना चाहिए.
पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय की बात करें तो पूर्व कुलपति डॉ केशरी लाल वर्मा का कार्यकाल समाप्त होने के बाद यहां डॉ राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सच्चिदानंद शुक्ला को यहां कुलपति नियुक्त किया गया. राज्यपाल ने इसके लिए 21 फरवरी को 14 फरवरी के बैकडेट पर आदेश जारी किया. इससे पहले भी इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के लिए गठित कुलपति सर्च कमेटी को राज्यपाल ने स्वेच्छा से बदल दिया था. इसका विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों ने जमकर विरोध किया था.
इससे पहले इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय में कुलपति की नियुक्ति को लेकर घमासान मच गया था. मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कड़ा प्रतिवाद किया था कि छत्तीसगढ़ में योग्य उम्मीदवारों के रहते बाहर से कुलपति मंगवाए जाने का कोई औचित्य नहीं है. वहीं कैबिनेट मंत्री अमरजीत भगत ने कहा था कि जब भी ऐसी कोई परिस्थिति बनती है तो दिल्ली वाले और नागपुर वाले यहां की व्यवस्थाओं पर अपना निर्णय थोपने की कोशिश करते हैं. अंततः राज्यपाल को इसी विश्वविद्यालय के डिपार्टमेंट ऑफ प्लांट मॉलिक्यूलर बायोलॉजी एवं बायोटेक्नोलॉजी के अध्यक्ष डॉ गिरीश चंदेल को कुलपति नियुक्त किया. बतौर छत्तीसगढ़ की राज्यपाल अनुसुइया उइके आदिवासियों की भी अवहेलना करती रहीं. अक्तूबर 2021 में आदिवासियों का एक बड़ा हुजूम उनसे मिलने लगभग 300 किलोमीटर पैदल मार्च कर पहुंचा. लगभग 350 आदिवासियों का यह जत्था हसदेव अरण्य को बचाने की मांग करने के साथ ही पेसा कानून को लागू करने की मांग कर रहा था. पर राज्यपाल ने उनकी आवाज को अनसुना कर दिया.
ओबीसी को तोड़ने की तैयारी
लोकसभा चुनाव से पहले अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण बढ़ाने का सवाल एक बार फिर चर्चा में है. सेवानिवृत्त न्यायाधीश जी रोहिणी की अध्यक्षता वाले आयोग ने इस संबंध में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को एक रिपोर्ट सौंपी है. रिपोर्ट में यह सुझाव दिया गया है कि आरक्षण में समानता लाने के लिए ओबीसी के बीच कुछ सब कैटेगरी या सब-डिवीजन किये जायें. करीब एक हजार पेज की रिपोर्ट दो हिस्सों में है. पहला भाग इस बात से संबंधित है कि ओबीसी कोटा कैसे आवंटित किया जाना चाहिए. दूसरा भाग देश भर की 2633 ओबीसी जातियों को लिस्ट में शामिल किया गया है. संयोग से अक्टूबर 2017 में बनाए गए रोहिणी आयोग को 12 सप्ताह के भीतर अपनी रिपोर्ट देनी थी लेकिन इसमें काफी वक्त लग गया. माना जा रहा है कि बिहार में जातीय जनगणना मामले में सुप्रीम कोर्ट में सौंपी गई रोहिणी आयोग की रिपोर्ट राष्ट्रीय राजनीति में नई बहस पैदा कर सकती है. सरकारी नौकरियों, शैक्षणिक संस्थानों में अब तक 27 प्रतिशत सीटें ओबीसी के लिए आरक्षित हैं. देशभर में 5 से 6 हजार समुदाय इस आरक्षण के अंतर्गत आते हैं. हालांकि इनमें से केवल 50 समूह ही आरक्षण की बुनियादी लाभों का आनंद लेते हैं.
महिला आरक्षण पर राहुल ने क्या कहा
नारी शक्ति वंदन अधिनियम पर चर्चा में हिस्सा लेते हुए 20 सितंबर को कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने इसे बदलाव वाला बताया. नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री हैं, लेकिन केंद्र सरकार के 90 सेक्रेटरी में से सिर्फ 3 ओबीसी समाज से आते हैं. यह ओबीसी समाज का अपमान है. जल्द से जल्द जनगणना का डाटा रिलीज करिए नहीं तो हम कर देंगे. तीन दिन बाद जयपुर में उन्होंने कहा कि केन्द्र सरकार परिसीमन व नयी जनगणना का बहाना बनाकर महिला आरक्षण को 10 साल टालना चाहती है. साथ ही यह सवाल भी उठाया कि ओबीसी महिलाओं के लिए आरक्षण क्यों नहीं होना चाहिए? महिला आरक्षण लागू करने के लिए जनगणना और परिसीमन क्यों जरूरी है? उन्होंने इस बात का भी हवाला दिया कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी 1993 में पंचायती राज में महिला आरक्षण लेकर आए थे.
क्या राहुल हो सकते हैं ओबीसी राजनीति के चैम्पियन
राहुल गांधी ओबीसी नहीं है इसलिए ओबीसी राजनीति में उनकी दावेदारी दिलचस्प होगी. वह भी तब जब ओबीसी नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज हैं. ओबीसी सेगमेंट की बदौलत ही आज भी कई राजनीतिक दल भाजपा और संघ के वर्चस्व को चुनौती दे रहे हैं. ओबीसी की आर्थिक स्थिति की बात करें इसका संबंध अलग-अलग पेशों से रहा है. प्रधानमंत्री मोदी पीएम विश्वकर्मा योजना के जरिए ओबीसी समाज को टारगेट करते हैं. वहीं, राहुल गांधी इनके बीच जाकर अलग-अलग पेशों के लोगों के बीच जाकर उनसे घुलमिल रहे हैं. एक अंतर और है- नरेंद्र मोदी की तरफ घूमने वाला कैमरा हमेशा उन्हें ताकतवर, महान नेता की तरह पेश करता है जबकि राहुल की तरफ घूमने वाला कैमरा उन्हें जनता का आदमी बनाता है.
महिला आरक्षण बिल के पास होने के बाद राहुल दिल्ली के आनंद विहार रेलवे स्टेशन पहुंच गए. वहां कुलियों से बातें की, उनके कपड़े पहन लिए और सर पर अटैची भी रख लिया. रामविलास पासवान, लालू यादव और नीतीश कुमार के बजट पेश करने के समय मीडिया का कैमरा कुलियों के बीच होता था मगर अब राहुल गांधी ने उनकी जगह ले ली है. राहुल गांधी किसानों से भी मिलते हैं तो धान रोपने लगते हैं, सब्जी मंडी जाते हैं और सब्जी वालों से बातें करते हैं. लोगों को अपने घर बुलाकर उनके साथ खाते हैं. कभी ट्रक ड्राइवर के साथ यात्रा करते हैं तो उनकी माली हालत पर बात करते हैं. बेंगलुरु में ब्लिंग कर्मी के साथ बतियाते हैं तो कहीं डिलीवरी बॉय के साथ उसकी बाइक की सवारी करने लगते हैं. कभी महिलाओं से बात करते दिखते हैं तो कभी कोचिंग सेंटर के विद्यार्थियों से मिलते हैं.
कांग्रेस की परंपरागत राजनीतिक शैली से हटकर राहुल गांधी की यह नई दावेदारी कोई साधारण घटना नहीं है. राहुल कई बार और लगातार ओबीसी की राजनीतिक आबादी और आर्थिक आबादी से जुड़े मुद्दों को उठा रहे हैं. जब मोदी मंदिर जाते थे तो मीडिया, विशेषकर सोशल मीडिया उन्हें ताने मारती थी. पर अब जब राहुल असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों से मिलते हैं तो मीडिया उस तरह के हमले नहीं कर पाती. इसलिए जब राहुल गांधी जातिगत जन गणना और महिला आरक्षण में ओबीसी के लिए रिजर्वेशन की बात करते हैं तो भाजपा उन्हें नजरअंदाज नहीं कर पा रही है..
एक बात और है जो राहुल को स्टीरियोटाइप होने से बचाती है. राहुल गांधी अतीत में कांग्रेस सरकारों की गलतियों को सहजता से अब स्वीकार करने लगे हैं. वे कह रहे हैं कि – हमारे समय कम था वह भी खराब है, इनकेसमय कम है वह भी खराब है हम चेंज चाहते हैं. अपनी पार्टी की गलतियों को इतनी सहजता से स्वीकार करना और उसमें संशोधन करने की इच्छा जताना आसान नहीं होता. बात चाहे मंडल आयोग के समय राजीव गांधी की हिचक की हो या मनमोहन सिंह के समय लाए गए बिल में ओबीसी को आरक्षण नहीं होने की, राहुल इन चूकों को स्वीकार करते हैं. दरअसल, राहुल गांधी कांग्रेस की राजनीति को करेक्ट कर रहे हैं. अब आते हैं ओबीसी की राजनीति में मोदी के कथित वर्चस्व पर. कई जानकार 2014 के बाद से लिखते रहे हैं कि नरेंद्र मोदी ने ओबीसी की राजनीति को मुखर कर दिया है. पर ओबीसीकी राजनीति में उनका वर्चस्व होता तो कर्नाटक को छोड़कर नरेंद्र मोदी के दौर में भाजपा को केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश में सफलता मिलती जबकि नहीं मिली. कर्नाटक में भी पिछली बार तोड़फोड़ से उन्हें सरकार बनानी पड़ी और इस बार कांग्रेस के सबसे बड़े ओबीसी नेता सिद्धारमैया के सामने उन्हें घुटने टेकने पड़े. आप इन राज्यों के साथ बंगाल, बिहार, उड़ीसा को भी जोड़ लीजिए. इन राज्यों में भी ओबीसी का सामाजिक आधार विशाल है. मगर यहां नरेंद्र मोदी सफल नहीं हो सके 10 साल गुजर गया आज दक्षिण भारत में कहीं उनकी सरकार नहीं है.
केन्द्र का रबर स्टैम्प पॉलीटिक्स
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि केन्द्र सरकार पिछड़ा वर्ग या दलितों में से उन्हीं लोगों को चुनती है जिनका उपयोग वह रबर स्टाम्प की तरह कर सके. ऐसे लोग इन वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं करते बल्कि वे आरएसएस के एजेंडे को आगे बढ़ा रहे होते हैं. पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद कोरी जाति से आते हैं जो उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति, गुजरात, केरल और महाराष्ट्र में पिछड़ा वर्ग में आता है. वर्तमान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू आदिवासी हैं. इसी तरह छत्तीसगढ़ की पूर्व राज्यपाल अनुसुइया उड़के भी आदिवासी हैं. शीर्ष संवैधानिक पदों पर नियुक्ति होने के बावजूद इन कार्यकाल को किसी भी क्रांतिकारी फैसले के लिए रेखांकित नहीं किया जा सकता.
अनुसुइया उड़के का बतौर राज्यपाल छत्तीसगढ़ का कार्यकाल विवादों में ही घिरा रहा. उनपर न केवल छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा पारित आरक्षण विधेयक को रोकने का आरोप लगा बल्कि विभिन्न विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर भी विवादों में रहीं. बतौर राज्यपाल उनका पूरा जोर अन्य राज्यों से संघ मानसिकता के लोगों को यहां कुलपति नियुक्त करने पर बना रहा. यहां तक कि उन्होंने कुलपति चयन समिति के प्रस्ताव तक को ठुकरा दिया. उन्होंने यहां तक कह डाला कि एक ही समाज के लोग क्यों कुलपति बन रहे हैं. अब वे मणिपुर की राज्यपाल हैं. मणिपुर के हालात किसीसे छिपे हुए नहीं हैं. कभी अनुसूचित जनजाति आयोग की उपाध्यक्ष रही उड़के ने मणिपुर के हालातों को बेकाबू हो जाने दिया. यहां तक कि विधानसभा का विशेष सत्र बुलाए जाने को लेकर भी पहले उन्होंने हीला हवाला किया और फिर एक सप्ताह बाद की तारीख दे दी.
वीपी सिंह ने चुकाई थी भारी कीमत
राजनीतिक विश्लेषकों का एक वर्ग असमंजस में है कि क्या भाजपा ओबीसी आरक्षण बढ़ाने की प्रक्रिया को लोकसभा चुनाव में शामिल करेगी. पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के मामले का हवाला देते हुए वे कहते हैं, मंडल आयोग से पहले वीपी सिंह उत्तर प्रदेश सहित पूरे हिन्दी क्षेत्र के प्रभावशाली नेता थे. लेकिन पिछड़ों के लिए आरक्षण लागू करने में उन्हें ऊंची जाति, मध्यम वर्ग के लोगों का वोट गंवाना पड़ा. जिस ओबीसी समुदाय के लिए उन्होंने इतना बड़ा राजनीतिक जोखिम उठाया, उनका वोट भी नहीं मिला. ऐसे में चुनाव पहले इसे लागू करना सत्तारूढ़ पार्टी के लिए चैलेंज हो सकता है.
मुस्लिमों को भी मिले आरक्षण का लाभ
भाजपा की फ़ायर ब्राण्ड नेता उमा भारती ने महिला आरक्षण पर भविष्य की लड़ाई का आग़ाज़ कर दिया है. उमा भारती ने पिछड़े वर्ग की महिलाओं को कोटा नहीं दिए जाने पर निराशा जताई. उन्होंने दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के साथ-साथ पिछड़े मुसलमानों के लिए भी आधी सीटें आरक्षित करने की मांग कर दी. उनकी चिंता अकारण नहीं है. पिछड़ों के कई नेता लगातार कहते रहे हैं कि पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए अलग कोटा नहीं होने पर एक बार फिर से लोक सभा और विधान सभाओं में सवर्ण जातियों का दबदबा बढ़ जाएगा.