मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की सीट पाटन विधानसभा से भारतीय जनता पार्टी ने दुर्ग सांसद विजय बघेल को टिकट देकर सियासी बिसात पर एक नया दाँव खेला है. सियासी पंडित अपने-अपने तरीके से इसकी समीक्षा कर रहे हैं. माना जा रहा है, कि इस दांव से कुर्मी बहुल पाटन विधानसभा क्षेत्र में भाजपा-कांग्रेस के बीच कुर्मी वोटों का बटवारा हो जाएगा. निश्चित रूप से मुख्यमंत्री होने की वजह से भूपेश बघेल की पाटन में एक अच्छी साख है और उनका पलड़ा भारी होने की संभावना ही अधिक है. पर यदि इस सीट पर भाजपा प्रत्याशी विजय बघेल की हार होती है, तो उनके राजनीतिक कद को बट्टा लग जाएगा. विजय इस समय लोकसभा में सांसद हैं. वैसे सियासी पंडितों के अनुसार कका-भतीजा में कड़ी रोमांचक टक्कर होगी और किसी के भी जीत-हार का अंतर नजदीकी वोटों से होगा. यह सीट चुनाव में राष्ट्रीय मीडिया के आकर्षण का केन्द्र होगी.
दरअसल, भाजपा हाईकमान ने सांसद विजय बघेल को टिकट देकर एक नया दाँव खेला है. भाजपा मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की उन्हीं के निर्वाचन क्षेत्र में घेराबंदी करना चाहती है. इससे वे अन्य क्षेत्रों में पार्टी के दूसरे प्रत्याशियों का प्रचार-प्रसार नहीं कर पाएंगे. इससे कांग्रेस का ओवरऑल प्रदर्शन प्रभावित हो सकता है, लेकिन ऐसा कुछ भी होने नहीं जा रहा है.
भाजपा ने बीते 15 वर्षों तक छत्तीसगढ़ में राज किया. इस दौर में ओबीसी, एससी, एसटी वर्ग कमजोर हुआ. उनमें निराशा का भाव देखा गया, इसीलिए तीनों वर्ग ने एक होकर बीते चुनाव में भाजपा को पटकनी दी और उनकी सीटें पिछले चुनाव में 15 के आँकड़े पर सिमट गई. इसलिए भाजपा हाई कमान ने विस चुनाव की घोषणा होने से ही पहले 21 संभावित प्रत्याशियों के नामों की घोषणा कर दी. ऐसा प्रदेश के चुनावी इतिहास में पहली बार देखने को मिला.
पिछले कुछ महीनों में भाजपा ने जातिवादी राजनीति को आगे करने का मजबूत इशारा किया है. माना जाता है, कि ऐसा करके वह ओबीसी वर्ग की दावेदारी को कमजोर करना चाहती है. इसकी एक बड़ी वजह यह है, कि भूपेश बघेल के मुख्यमंत्री बनने से किसान, मजदूर और पिछड़ा वर्ग मजबूत हुआ है. भाजपा जातिवादी राजनीति को इसका सबसे मजबूत काट मानती है.
भाजपा पहले भी खेल चुकी हैं दांव
भाजपा ने इससे पहले भी इस तरह के सियासी दाँव खेले हैं. अजीत जोगी के खिलाफ आदिवासियों के बड़े चेहरे नंदकुमार साय को भाजपा ने चुनावी समर में उतारा था. साय के चुनाव हारने से आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग कमजोर हुई थी. अब सवाल यह है, कि बीजेपी एक सांसद को मुख्यमंत्री के खिलाफ चुनाव में उतार कर क्या ओबीसी वर्ग को कमजोर करना चाहती है? चूंकि विजय बघेल वर्तमान में दुर्ग लोकसभा से सांसद है. वे पिछड़ा वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं. पिछले 10 वर्षों से सर्वकुर्मी समाज के अध्यक्ष भी हैं. इसीलिए समाज में उनकी पैठ भी है.
कुर्मी समाज के वोटों का बटवारा होने से यह वर्ग इसलिए आहत होगा, कि भूपेश या विजय में से किसी एक को इस चुनाव में अपनी साख गवाँनी होगी. ओबीसी के एक बड़े चेहरे के कमजोर होने से पार्टी में नेतृत्व की कमान पुन: अगड़ों के हाथों में चली जाएगी. इस अवधारणा को भी बल मिलेगा, कि ओबीसी में नेतृत्व क्षमता का अभाव है. यह बीजेपी के राजनीतिक षड्यंत्र का हिस्सा है. क्योंकि बीजेपी के 15 वर्षों के शासन में ये चेहरे लगभग हाशिए पर थे. अब इनके हाथों में झुनझुना है.
एकाएक अरुण साव को पार्टी का अध्यक्ष बनाना, नारायण चंदेल को नेता प्रतिपक्ष और विजय बघेल को चुनाव घोषणा पत्र समिति का संयोजक बनाना पार्टी की राजनीतिक मजबूरी थी. विपक्ष में रहते हुए भाजपा को एससी, एसटी और पिछड़ा वर्ग याद आते हैं, पर सत्ता आते ही भाजपा का चाल, चरित्र और चेहरा बदल जाता है. भाजपा के इतिहास में यह भी दर्ज है, कि उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह और मध्य प्रदेश में उमा भारती, पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण ये सभी पिछड़े वर्ग के चेहरे थे, जिन्हें कोई ना कोई कारण बताकर हाशिए पर डाला गया. यही हाल छत्तीसगढ़ में भी देखने को मिला. सीएम चेहरे के रूप में दिलीप सिंह जूदेव, रमेश बैस, बलिराम कश्यप, नंदकुमार साय, ताराचंद साहू, ननकीराम कंवर जैसे दबंग माटीपुत्रों को पहले प्रोजेक्ट किया गया, फिर हाशिये पर डाल दिया गया.
राजनीतिक हल्कों में यह भी चर्चा का विषय है, कि भाजपा की कथनी और करनी में अंतर है. भाजपा हाई कमान ने पहले चरण में जिन 21 विधानसभा क्षेत्र से टिकट के लिए नामों की घोषणा की है उसमें एससी के 1, ओबीसी वर्ग से 10 और एसटी के 10 का नाम शामिल है. वहीं दूसरी तरफ सवर्ण सीटों के प्रत्याशियों की घोषणा नहीं की गई. यह भाजपा का अपना राजनीतिक गणित है. जो फासिज्म के करीब है. ऐसा राजनीतिक समीक्षकों का कहना है.