खदान हो या इस्पात संयंत्र किसी का नहीं मिला लाभ, बाहरी ठेकेदार भी कर रहे शोषण, कोई सुनवाई नहीं
बस्तर के विकास में जुटने वाली अरबों का बजट सरकारी अधिकारियों, ठेकेदारों, नक्सलियों, राजनेताओं और वन माफियाओं की जेब में जा रही है. विकास कार्य सिर्फ कागजों और फाइलों में मजबूत है. धरातल की कहानी कुछ और ही कहती है. घटिया निर्माण और सतही विकास तमाम सरकारी प्रयासों के बावजूद प्रशासनिक उदासीनता व भ्रष्टाचार की पोल खोलती है, पढ़िये एक रिपोर्ट…
लखन वर्मा–
छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचलों में हो रहे विकास कार्यों से बाहरी लोग तो खूब मालामाल हुए पर बस्तरिहा और सरगुजिहा के हाथ खाली के खाली रह गए. बस्तरिहा को न तो खदानों या इस्पात संयंत्रों में काम मिल पाया और न ही विकास का कोई सीधा लाभ. सरगुजा के किसान तो अपने ही खेतों में मजदूर बन गए. कभी लाल गलियारे में शामिल इन दोनों आदिवासी बहुल अंचलों पर अब बाहरी ठेकेदारों और एजेंसियों का कब्जा है. स्थानीय युवाओं को नौकरी दिलाने की सरकार की छोटी कोशिश पर उच्च न्यायालय ने स्टे लगा दिया. उधर ठेकेदार न केवल करोड़ों में खेल रहे हैं बल्कि नेताओं के साथ ही इन इलाकों की नक्सली गतिविधियों को भी फायनेंस कर रहे हैं.
सुरक्षा बलों ने हथियारबंद माओवादियों को पहाड़ियों तक सीमित तो कर दिया है किन्तु नक्सलवाद की आड़ में नए माफियाओं का खेल शुरू हो गया है. यह माफिया है निर्माण एजेंसियों के ठेकेदार और लकड़ी तस्करों का. नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के लिए एसडब्ल्यूई योजनांतर्गत कई प्रोजेक्ट लांच किये जाते हैं. निर्माण एजेंसियां भी तय होती हैं. इन एजेंसियों की आड़ में बाहरी संदिग्ध लोग बस्तर में घुस आते हैं. ये न केवल गुणवत्ताविहीन काम कर रहे हैं बल्कि सरकारी खजाने पर डाका डाल भी रहे हैं.
स्थापना खर्च बचाने के लिए 50-60 हजार वेतन वाले इंजीनियरों की जगह पड़ोसी राज्यों के दसवीं-बारहवीं पास युवाओं को 10-12 हजार मासिक वेतन पर रखा जाता है. इनके पास डिग्री- डिप्लोमा तो नहीं है पर ये लोग जोखिम वाले क्षेत्र में 10-12 हजार रुपए की तनख्वाह पर काम करने को तैयार हो जाते हैं.
निगरानी एजेंसियां (पीडब्ल्यूडी, प्रधानमंत्री सड़क योजना, ए.डी.बी. प्रोजेक्ट, एन.एच.) कार्य की गुणवत्ता की तरफ से आंखें बंद किए हुए हैं. वैसे भी सरकारी एजेंसियों में ज्यादातर इंजीनियर मैदानी एवं शहरी क्षेत्रों में पदस्थ हैं, यहां अमले की भारी कमी है. ऐसे में गुणवत्तापूर्ण निर्माण की मानीटरिंग कैसे हो? जंगलों में गुणवत्ताविहीन सड़कों, पुल-पुलियों का निर्माण कर ठेकेदार चाँदी काट रहे हैं. जब जंगल में कदम पड़ ही गए तो ये एजेंसियां साल-सागौन की तस्करी का नया व्यापार भी शुरू कर लेते हैं.
बताते हैं कि यहां अन्य राज्यों के ब्लैक लिस्टेड और आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों ने पैर जमा लिए हैं. सवाल उठता है कि ये नक्सलगढ़ में कोई खतरा क्यों नहीं महसूस करते? जवाब है नेताओं, अफसरों एवं ठेकेदारों का त्रिकोणीय गठजोड़. इक्कीसवीं सदी में बढ़ते चुनावी खर्चों की मजबूरी के साथ ही अकूत धन कूटने की प्रवृत्ति भी बढ़ी. उगाही के तरीके बदल गये. सरकारी ठेके हासिल कर बेहिसाब मुनाफा कमाया जा रहा है. इसमें नेता-अफसर और ठेकेदार सबका हिस्सा होता है. अब अगर नक्सलियों से भी सांठगांठ कर ली जाए तो सोने पर सुहागा हो जाता है. इसलिए ऐसी एजेंसियां अपनी जगह बनाने में कामयाब हो गईं जो नेताओं की तिजोरी भरने के साथ ही सेटिंग में उस्ताद हों.
सिंडिकेट का खेल
सूत्र बताते हैं कि ज्यादातर टेंडर मैनेज किये जाते हैं. तीन-चार एजेंसियां मिलकर सिंडिकेट बना लेती हैं. कोई इस गठजोड़ को तोड़ना चाहे, तो विभागीय नियमों का इस्तेमाल कर उन्हें हतोत्साहित कर दिया जाता है. किसी तरह काम ले भी लिया तो ऐसे एजेंसियों को या तो काम छोड़ना पड़ता है या फिर भारी नुकसान उठाना पड़ता है. सिंडिकेट की एजेंसियां स्वयं काम नहीं करतीं बल्कि पीस वर्क एवं पेटी कांट्रेक्टरों को काम सौंप देती है. इनका भुगतान रोकने की भी शिकायतें आम हैं पर कोई कान नहीं धरता.
बाहरियों के पैर हुए मजबूत
केन्द्र सरकार के लिए बस्तर केवल लोहे के पहाड़ हैं. राज्य सरकार के लिए यह वनोपजों और गौण अनाजों का स्वर्ग. यहां लोहे की बेशकीमती खदानें खुलीं तो आदिवासियों को कुछ नहीं मिला. उलटे परिवहन में लगे ठेकेदारों के कारण यहां नक्सलियों की चाँदी हो गई. आम बस्तरिहा सुरक्षा बलों और नक्सलियों के दो पाटों की बीच घुन की तरह पिस गया. उन्हें रोजगार के सपने तो दिखाए गए पर हाथ में आया कुछ नहीं. बस्तर का ड्रीम प्रोजेक्ट कहे जाने वाले नगरनार स्टील प्लांट में भी स्थानीय बेरोजगारों के साथ छलावा किया गया. एनएमडीसी स्टील प्लांट में 80% बाहरी युवाओं की नियुक्ति की गई है जबकि शेष 20% में भी केवल 5% ही स्थानीय युवा हैं.
नहीं मिला विकास का लाभ
बस्तर में राष्ट्रीय खनिज विकास निगम (NMDC) की खदानें हैं. इन खदानों में लगभग पूरा काम मशीनों के द्वारा होता है. पिछले 60 सालों से यहां उत्खनन हो रहा है. जिन डिपाजिटों में खनन चल रहा है वहां अब भी आधे से ज्यादा खनिज भरा पड़ा है.
बस्तर का ड्रीम प्रोजेक्ट कहे जाने वाले नगरनार स्टील प्लांट में स्थानीय बेरोजगारों के साथ छलावा किया जा रहा है. एनएमडीसी स्टील प्लांट के मेकॉन कंपनी ने लगभग 80% बाहरी युवाओं की भर्ती की है जबकि अन्य 20% में भी केवल 5% स्थानीय युवा काम कर रहे हैं.
इधर एक नए डिपाजिट को निजी क्षेत्र के लिए खोलने की तैयारी शुरू कर दी गई है जिसका आदिवासी विरोध कर रहे हैं. इस विरोध की ठोस वजह है. आदिवासियों का मानना है कि जब सरकारी कंपनी एनएमडीसी ने ही उनका ध्यान नहीं रखा तो निजी क्षेत्र से क्या उम्मीद की जाए. खदानों का मतलब उनके लिए केवल उजड़ते जंगल, लाल पानी, भारी वाहनों का आवागमन मात्र है. सभी सरकारें नक्सलियों को भगाने और खदानें खोलने का ही रास्ता साफ करती रही. सड़क बनाने की जिद में बस्तर खून से लाल हुआ. 2018 में भूपेश बघेल सरकार के आने के बाद छत्तीसगढ़ के लिए बस्तर में सुरक्षा, विश्वास और विकास का नया दौर शुरू हुआ.
राज्य सरकार की कोशिशों पर विराम
नगरनार स्टील प्लांट में यह स्थिति तब है जबकि प्लांट प्रबंधन ने प्लांट में 50% नौकरियां बस्तर के बेरोजगारों को क्वालिफिकेशन के आधार पर देने का वादा किया था. राज्य सरकार ने कनिष्ठ चयन बोर्ड का गठन किया था और इस बोर्ड के माध्यम से सरकारी विभागों में खाली पड़े विभिन्न पदों पर स्थानीय युवाओं को नौकरी देने की बात कही थी, लेकिन इस कनिष्ठ चयन बोर्ड के माध्यम से भर्ती पर हाईकोर्ट का स्टे लग गया है.
एनएमडीसी ने चूना लगाया निजी से क्या उम्मीद?
डिपॉजिट- -13 में लौह अयस्क खनन के लिए आदिवासियों और स्थानीय जन प्रतिनिधियों को विश्वास में नहीं लिया गया. एनएमडीसी पहले से संचालित भंडार का आधा अयस्क भी 6 दशकों में नहीं निकाल सकी है, फिर नए डिपॉजिट खोलने और उन्हें निजी हाथों में सौंपने का क्या औचित्य है? इतने सालों में एनएमडीसी से स्थानीय लोगों को कोई फायदा नहीं हुआ. न रोजगार मिला और न ही सुविधाएं. लाल पानी की समस्या भी हल नहीं हुई. एनएमडीसी से क्षेत्र को पेयजल, बिजली, सड़क की जो सुविधा मिलनी थी, वह नहीं मिली. फिर निजी कंपनियों से क्या उम्मीद कर सकते हैं?
निर्माण एजेंसियां और ठेकेदारों के वारे-न्यारे
वर्ष 2019-20 एवं वर्ष 2020-21 में प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना छत्तीसगढ़ के उत्कृष्ट प्रदर्शन के आधार पर भारत सरकार से 271 करोड़ रूपए की वित्तीय प्रोत्साहन राशि प्राप्त हुई थी. छत्तीसगढ़ में वर्ष 2015- 16 से 2022-23 तक प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना अंतर्गत 16,297 किमी सड़कों का निर्माण हो चुका है. वर्ष 2015-16 से वर्ष 2022-23 के बीच बजट में प्रावधान की गई 3309 करोड़ रूपए की राशि के विरुद्ध 2493 करोड़ रूपए का व्यय किया गया. बस्तर की 231 किलोमीटर की 75 सड़कों का 37 करोड़ रूपए की लागत से संधारण किया गया. सरगुजा संभाग की 146 सड़कों का संधारण 90 करोड़ रूपए की लागत से किया गया. इसमें से अधिकांश पैसा इन ठेकेदारों को चला गया.
बस्तर में खर्च की जा रही करोड़ों की राशि बाहरी ठेकेदारों के हाथों तक पहुंच रही है. इनमें से अधिकांश के मुख्यालय राजधानी रायपुर में हैं जहां उनके करोड़ों रुपए के आलीशान बंगले हैं. इन कंपनियों के सुपरवाइजरों को ही बस्तर की सड़कों पर देखा जाता है. फौरी पूछताछ में ये लोग खुद को इंजीनियर सब इंजीनियर बताते हैं. पर जब गहराई से पूछताछ की जाती है तो ये कन्नी काट लेते हैं. पुलिस सूत्रों के मुताबिक इनमें ऐसे युवा भी शामिल हो सकते हैं जिनका यूपी-बिहार में आपराधिक रिकार्ड हो. वहां पुलिस का दबाव बढ़ने के बाद इन्होंने छत्तीसगढ़ में पनाह ली हो.
पुलिस नहीं नक्सलियों का प्रोटेक्शन
हाल ही में जब सड़क निर्माण में जुटी एक एजेंसी के वाहनों को नक्सलियों ने फूंक दिया तो पुलिस का कहना था कि एजेंसी ने पुलिस को न तो सूचित किया था और न ही सुरक्षा की मांग की थी. बस्तर के घने जंगलों वाले क्षेत्र में ये ठेकेदार अपने रिस्क पर ही काम करना पसंद करते हैं. उनका काम आसान बनाता है. नक्सलियों को जाने वाला इनका भारी भरकम नगद चंदा जो अब तक 2000 रुपए के नोटों की शक्ल में होता आया है.
बीजापुर इलाके में पुलिस ने नक्सली कमांडर मल्लेश का 6 लाख रुपया संघम सदस्यों से जब्त किया था. यह पूरी रकम 2 हजार के 300 नोटों की शक्ल में थी. बस्तर के आईजी सुंदरराज पी ने बताया कि बस्तर में नक्सली संगठन पैसों की बदौलत ही बाहरी मदद लेते हैं. लेवी के रूप में नक्सली अधिकांश बड़े नोटों को अपने पास जमा करके रखते हैं और इन्हीं पैसों की मदद से अपने संगठन को मजबूत करते हैं. नक्सल मामलों के जानकारों का मानना है कि नक्सली बड़े स्तर पर व्यापारियों, ठेकेदारों और अन्य लोगों से लेवी वसूलते हैं. इस रकम को बीजापुर, सुकमा, दंतेवाड़ा और नारायणपुर के घने जंगल में छुपा कर रखते हैं.
सुरक्षा बलों ने हथियारबंद माओवादियों को पहाड़ियों तक सीमित तो कर दिया है किन्तु नक्सलवाद की आड़ में नए माफियाओं का खेल शुरू हो गया है. यह माफिया है निर्माण एजेंसियों के ठेकेदार और लकड़ी तस्करों का.
वन अधिकार पट्टे का खुला दुरुपयोग
वनांचलों में बढ़ती जनसंख्या और ग्रामीणों की जरूरत को देखते हुए भूमिहीन निवासियों को खेती-किसानी के लिए वन भूमि अधिकार पत्र दिए गए हैं. अब तक अकेले जगदलपुर वनवृत्त के अंतर्गत लगभग 32,000 हेक्टेयर वन भूमि का पट्टा दिया जा चुका है. ग्रामीण आदिवासियों को लालच देकर उन्हें प्राप्त भूमि पर स्थित पेड़ों को काटने हेतु उकसाया जाता है. जाहिर है कि पैसे और खेती के लिए वन भूमि अधिकार पट्टा पाने वाला व्यक्ति तत्काल राजी हो जाता है. इस प्रकार वन भूमि अधिकार पट्टे के बड़े पैमाने पर दुरुपयोग के मामले सामने आए हैं. इन क्षेत्रों में लगातार बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई से हरियाली गायब हो रही है और सैकड़ों साल पुराने साल वृक्षों के साथ ही सागौन, बीजा जैसे अन्य कीमती वनोपज देने वाले वृक्ष भी गायब हो रहे हैं. वास्तव में वन भूमि अधिकार पट्टा इस शर्त के साथ दिया जाता है कि उक्त भूमि पर स्थित बड़े पेड़ों को ना काटा जाए, लेकिन निगरानी के अभाव में इस शर्त का पालन नहीं हो रहा है. निगरानी करें भी तो कौन जब सरकारी अधिकारी भी अवैध कार्यों में भागीदार बन जाए तो नियम शर्तों का पालन कैसे संभव है.
बताया जाता है कि मुख्यमंत्री निवास में आयोजित छत्तीसगढ़ राज्य वन्यजीव बोर्ड की बैठक में बस्तर से बोर्ड के सदस्य हेमंत कश्यप द्वारा यह मामला उठाया गया और उन्होंने जानकारी दी कि वन भूमि अधिकार पत्र में उल्लेखित शर्तों का पालन नहीं किया जा रहा है, जिसमें कहा गया है. कि वृक्षों को काटे बगैर वन भूमि पर खेती की जाएगी. उसका पालन ना कर पेड़ों को गडलिंग कर सुखाने और उनमें आग लगाने की प्रवृत्ति आम हो गई है, जिसके कारण पेड़ों की बहुत क्षति हो रही है. यह सुझाव भी दिया गया कि वन भूमि अधिकार पट्टा देने के पूर्व भूमि का निरीक्षण कर उस भूमि में किस-किस प्रजाति के कितने वृक्ष है.
उसका उल्लेख पट्टा प्रपत्र में किया जाना चाहिए, जिससे समय-समय पर निरीक्षण करने से यदि वृक्ष काटे गए हैं तो उसकी जानकारी मिल जाएगी और ऐसे मामलों में दंड के कड़े प्रावधान हों तथा क्षति पूर्ति हेतु अर्थदंड लगाया जाए जिससे वन भूमि पट्टे के दुरुपयोग पर रोक लगेगी.. छत्तीसगढ़ राज्य वन्यजीव बोर्ड की बैठक 10 दिसंबर 2022 को संपन्न हुई थी. यह मामला जानकारी में आने के बाद मुख्यमंत्री ने श्री कश्यप की सूचनाओं को गंभीरता से लिया और 19 दिसंबर 2022 को मुख्यमंत्री कार्यालय से पीसीसीएफ (वन्य जीवन एवं जैव विविधता संरक्षण) को पत्र प्रेषित कर निर्देशित किया गया कि इस संबंध में तत्काल सकारात्मक कार्यवाही की जाए. जानकारी मिली है कि इसके तारतम्य में मुख्य वन संरक्षक वन्यजीव छत्तीसगढ़ में लगभग 5 माह बाद 23 मई 2023 को मुख्य वन संरक्षक जगदलपुर वनवृत्त, मुख्य वन संरक्षक वन्य जीवन और क्षेत्रीय निदेशक इंद्रावती टाइगर रिजर्व जगदलपुर, निदेशक कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान जगदलपुर तथा उपनिदेशक इंद्रावती टाइगर रिजर्व प्रोजेक्ट को पत्न प्रेषित कर आवश्यक कार्यवाही करने एवं की गई कार्यवाही से मुख्यालय को अवगत कराने का निर्देश दिया है. अब देखना यह है कि जमीनी स्तर पर क्या कार्रवाई होती है.