
डॉ.नलिनी श्रीवास्तव –
आज 21 वीं सदी में यह कहना सरल नहीं है कि विश्व के किस देश में विद्यालय की स्थापना सर्वप्रथम हुई थी. प्रामाणिक तौर से यह गौरव छत्तीसगढ़ को ही मिलता है. पांच हजार वर्ष पहले छत्तीसगढ़ के दार्शनिक स्थल रतनपुर में एक विश्वविद्यालय था. इसमें लगभग दस हजार विद्यार्थी अध्ययन करते थे. यहां सभी शास्त्रों के अध्ययन की सुविधा थी. इस बात का उल्लेख मुनिकांत “सागर” ने अपनी पुस्तक “खण्डहरों का वैभव” में किया है. भारत में पांच हजार साल पहले भी विश्वविद्यालय अस्तित्व में थे.यद्यपि इतिहास में इसका व्यवस्थित उल्लेख प्राप्त नहीं होता है.
भारत की यह त्रासदी रही है कि उसे अनेक युद्धों और आक्रमणों का सामना समय समय पर करना पड़ा जिसके कारण सैकड़ों पुस्तकालय नष्ट हो गये. वर्तमान परिवेश में जिन विश्वविद्यालयों के संबंध में इतिहास से प्रत्यक्ष प्रमाण मिलता है वे हैं- उनमें तक्षशिला, नालंदा, वाराणसी, विक्रमशीला, वल्लभी विश्वविद्यालय, आदि का उल्लेख किया जा सकता है. इसके अतिरिक्त कुछ और भी विश्वविद्यालयों के नाम प्राचीन भारत के इतिहास में पढ़ने को मिलते हैं. जैन विहार कश्मीर में हीनपती, पंजाब में मतीपुर विहार, उत्तर प्रदेश में हिरण्य विहार, भद्र विहार कन्नौज में, अमरावती आंध्र प्रदेश में, अवदंतपुरी और जगदल्ल विहार बंगाल में. इसके अतिरिक्त अनेक देवालय विद्यापीठ थे. जैसे सालोत्णां देवालय विद्यापीठ, एन्नप्येरम विद्यापीठ, तिरूमुक्कूदल देवालय विद्यालय विद्यापीठ, तिरूबोरियूल देवालय विद्यापीठ, मल्कापुर देवालय विद्यापीठ.
प्राचीन भारत में इनके अतिरिक्त अन्य भी विद्या के केन्द्र थे जहाँ पर अनेक प्रकार की शिक्षा दी जाती थी. नारी शिक्षा की ओर भी बहुत ध्यान दिया जाता था. पाठ्यक्रम ऐसे बनाये जाते थे जिससे विद्यार्थी की मानसिक क्षमता का ठीक-ठीक विकास हो सके. धर्म और दर्शन के अतिरिक्त प्राचीन भारत में विज्ञान और वाणिज्य की भी शिक्षा दी जाती थी. चिकित्सा शास्त्र में तो प्राचीन भारत ने कीर्तिमान स्थापित किया था. शल्य क्रिया द्वारा सर्पदंश की सफल चिकित्सा की जाती थी. इतिहास में इस बात की जानकारी सिकंदर ने अपने मित्रों को चर्चा के समय दी थी. प्रारंभ में विद्यार्थियों को तरबूज, खीरा, लौकी आदि पर शल्य क्रिया सिखाई जाती थी. इसके पश्चात् मृत पशुओं और शवों की वैसी ही शल्य क्रिया होती थी जैसी आज की जाती है. शरीर रचना का जितना ज्ञान प्राचीन भारत को था उतना उस समय किसी अन्य देश को नहीं था. वाणिज्य शिक्षा और नारी शिक्षा पर भी विशेष ध्यान दिया जाता था. अंत में एक बात अवश्य सिखाई जाती थी- “जीवन भर अंतिम सत्य की खोज करो.” सत्य का अनुसंधान ही शिक्षा का उद्देश्य था.
यह तो है भारत के अतीत का सुनहरा इतिहास. आज वर्तमान शिक्षाप्रणाली का जो रूप हमारे सामने है वह शुद्ध रूप से व्यावसायिक है. शिक्षा प्रणाली में जो मुख्य बात लुप्त होती जा रही है वह है अनुशासन. अनुशासन जीवन की अनिवार्य शर्त होती है. अनुशासनहीन शिक्षा ठीक वैसी ही है जैसे बिना नींव की इमारत. वर्तमान शिक्षा प्रणाली का अनुशासन पर वैसा ही प्रभाव पड़ा है जैसा कि ओस की बूंदों पर सूर्य की प्रखर दीप्ति का पड़ता है.
आज भारतवर्ष पाश्चात्य सभ्यता की चमक-दमक व तड़क-भड़क से पूर्ण रूप से ग्रसित हो चुका है. इसके प्रभाव से छात्र समुदाय की मानसिकता इतनी विकृत हो गई है कि वे ‘प्रयत्नलाघव’ को ही श्रेयस्कर समझ रहे हैं. कम परिश्रम करके अधिक लाभ की लालसा उन्हें दिगभ्रमित कर रही है. नतीजा यह हो रहा है कि स्वयं की ऊर्जा स्वयं की शक्ति से युवा पीढ़ी अनजान होते जा रहे हैं. क्या न करें की दुविधा के भंवर जाल में फंसकर कुंठित होकर निराशा के खाई में गिरते जा रहे हैं.
वर्तमान परिवेश में शिक्षक और छात्र, गुरू और शिष्य का निश्छल स्नेह संबंध भी अब दिखाई नहीं देता. वह संबंध भी अब व्यावसायिक हो गया है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि शिक्षा व्यक्ति के दृष्टिकोण को व्यापक बनाती है तथा संकीर्ण मनोवृत्तियों का अन्त कर उनमें राष्ट्रीय चरित्र विकसित करती है.
वर्तमान शिक्षा प्रणाली को कोई सही दिशा दे सकता है तो वह शिक्षक ही है. उच्च स्तरीय समितियों के निर्णायकों की सलाह पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग एक से एक नियम कानून बनाती जा रही है. उन कानूनों को क्रियान्वित करने में शिक्षकों का दायित्व महत्वपूर्ण है.
शिक्षा के क्षेत्र में हमारे भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी लिखते हैं- ‘शिक्षा एक ऐसा कारखाना है, जो ऐसी बुनियादी चीज बनाता है जिसकी जरूरत सभी दूसरे कारखानों को हुआ करती है और जिसकी उत्पत्ति और सफलता पर दूसरे कारखानों की सफलता और असफलता निर्भर करती है.’
शिक्षा के लिए उम्र कोई बंधन नहीं है. जीवन-पर्यन्त व्यक्ति शिक्षार्थी बना रह सकता है. शिक्षा प्राप्ति के तीन आधार स्तम्भ हैं. सूक्ष्म निरीक्षण करना, गहराई तक अनुभव करना, जो कुछ पढ़ा व सीखा है उसे जीवन में उतार लेना, शिक्षा का वास्तविक मर्म है. शिक्षा का उदे्श्य जिज्ञासा उत्पन्न कराना है. शिक्षा, जीवन मूल्यों के अनवरत शोध करने की प्रेरणा प्रदान करता है. किसी भी राष्ट्र के सर्वांगीण विकास में शिक्षा का विशेष महत्व है. व्यक्ति के जीवन में जहां भी सफलता है उसके मूल में एकाग्रता और लगन होती है. अतः सही दिशा-निर्देश देने वाले शिक्षक का पद गरिमामय हो जाता है.
शिक्षक-एक वटवृक्ष के समान है जिसकी शीतल छाया में न जाने कितने ज्ञान पिपासा से व्याकुल बटोही ज्ञान की परितृप्ति की आस में पहुंचते है. एक सच्चे शिक्षक का यह महान कर्तव्य हो जाता है कि वह अपनी अध्ययन की परिपक्वता से निकली ज्ञान रूपी गंगा से अज्ञानता की प्यास बुझाए. शिक्षा का क्षेत्र सृष्टि के आदिकाल से ही पवित्र माना जाता है अतः निष्काम, निःस्पृह भाव से पूर्ण ईमानदारी के किया गया विद्या का दान अपने आप में असाधारण बात होती है.