
आदिवासियों के शोषण और उत्पीड़न की कहानी खत्म ही नहीं हो रही है. बांध, खदान और जंगलों के लिए लंबे समय से उन्हें अपने प्राकृतिक आवास जंगलों से खदेड़ा जाता रहा है. पर अब उनकी आस्था, परम्परा और संस्कृति पर भी हमले शुरू हो गए हैं. जामड़ी पाटेश्वर धाम से कुछ ही दूर बसे गांव तुएगोंदी में बाहरी लोगों द्वारा लाठी, डंडा और पत्थरों से हमला किया गया. हमलावर आदिवासियों द्वारा ग्राम देवता के आगे बलि दिए जाने का विरोध किया जा रहा था. आदिवासी समाज ने इस हमले को गंभीरता से लिया है.
आदिवासियों का कहना है कि लगभग 40 साल पहले उन्होंने एक बाबा को जामड़ीपाट के निकट बसने दिया था. जामड़ी पाट 12 ग्रामों के आदिवासियों की आस्था का केन्द्र है. यह बालोद जिले के डौंडीलोहारा से 17 किमी दूर वृहद वन आरक्षित क्षेत्र में स्थित है. 1975 में एक बाबा यहां पहुंचे. यहां पेयजल से लेकर जंगली कंद-मूल के रूप में आहार की पर्याप्त व्यवस्था थी. इसलिए वह यहीं बस गए. 1976 में उन्होंने यहां पाटेश्वर धाम मंदिर का निर्माण शुरू करवाया. 1985 के आसपास बालक दास महात्यागी भी आकर उनके साथ हो गया. इसके साथ ही आदिवासी परम्पराओं में दखलअंदाजी भी शुरू हो गई. पर शांति प्रिय ग्रामीणों ने इसे भी स्वीकार कर लिया और स्वयं पीछे हट गये. उन्होंने मंदिर निर्माण में सहयोग भी किया पर पाटेश्वर धाम की दखलअंदाजी बढ़ती ही चली गई.
आदिवासी परम्पराओं पर लगातार चोट
1. बालक दास गांव-गांव घूम कर आदिवासियों से चंदा लेने लगा और उन्हें अपना अनुयायी बनाना शुरू कर दिया. ग्रामीणों के इस भोलेपन का फायदा उठाते हुए उन्होंने जामड़ी पाठ (पाठ बाबा) को पाटेश्वर धाम बना दिया. इसमें ग्राम पंचायतों की राशि का भी दुरूपयोग किया गया.
2. पाठ बाबा के मूल स्वरूप को बदलते हुए उन्हें घोड़ा पर सवार दिखाया गया. प्राचीन गुफा में बनी आकृतियों से छेड़छाड़ की गई. साथ ही आदिवासियों को जामड़ी पाठ बाबा के स्थान पर जीवा सेवा अर्जी करने से मना कर दिया गया. अब यह लोग अन्य स्थानों पर जीवा सेवा अर्जी कर अपनी समस्याओं को दूर करने की मन्नतें मांगते हैं.
3. जामड़ीपाट में महिलाओं का प्रवेश वर्जित था जिसे बदल दिया गया. प्राकृतिक कुंड को जमदग्नि मुनि की तपःस्थली बता दिया गया. आरक्षित वन क्षेत्र 15 एकड़ की बेशकीमती पेड़ों को काट कर भव्य मंदिर का निर्माण प्रारंभ हुआ.
4. कुछ दिन पूर्व जब बालक दास के गुरु का निधन हुआ तो ग्राम तुएगोंदी की पारंपरिक सीमा क्षेत्र में अंतिम संस्कार कर दिया गया. आदिवासी परम्पराओं का पालन नहीं करने के बालक दास को ग्राम का दोषी ठहराया गया. बालक दास ने पहले तो मना किया जिस पर शासन को सूचना देकर गांव में होने वाले विभिन्न आयोजनों को प्रतिबंधित कर दिया गया. अंततः बालक दास को अपराध स्वीकार करना पड़ा. उन्होंने ग्रामीण व्यवस्था में सहयोग का आश्वासन दिया और उजरीकरन (शुद्धीकरण) हेतु पेन सेवा, देव सेवा अर्जी करने पर सहमति बनी.
5. अप्रैल 2022 में यहां एक बार फिर बवाल हो गया. तुएगोंदी के आदिवासी समाज ने देव पूजन का कार्यक्रम रखा था. पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार आश्रम से 500 मीटर दूर जंगल में जीवा सेवा दिया गया. उधर बालक दास ने अपने अनुवायियों को ग्राम तुएगोंदी भेज कर आदिवासियों पर हमला करवा दिया जबकि यह गांव पाटेश्वर आश्रम से 3 किमी दूर है. सुनियोजित तरीके से अंजाम दिए गए इस हमले में कई बाहरी युवक शामिल थे. इन संगठनों का कहना था कि 1975 में ही संत राजयोगी बाबा ने यहां 12 गांवों की सहमति लेकर बलिप्रथा को बंद करवा दिया था. जबकि आदिवासी समुदाय का कहना था कि देवी देवता नाराज हो गए हैं इसलिए उन्होंने बलि देने की मन्नत रखी है. उनकी धार्मिक परम्परा पर हमला किया जा रहा है जिसे वे बर्दाश्त नहीं करेंगे.
जामड़ीपाट के अस्तित्व पर संकट
जामड़ी पाट पहाड़ी पर आदिवासियों के आराध्य देवता का स्थान है. इसी स्थल को जामड़ी पाटेश्वरधाम के रूप में विकसित किया जा रहा है. 1976 में शिव मंदिर, हनुमान मंदिर आदि का निर्माण किया गया. यहां विशाल मंदिर बनाने की योजना है. 108 फीट मुख्य मंदिर का निर्माण 29 जनवरी 2005 को प्रारंभ हुआ. इसके लिए राजस्थान के बंशी पहाड़पुर से लाल रंग के पत्थर मंगवाए गए. मंदिर पर 25 करोड़ खर्च आएगा. मंदिर में 108 मूर्तियां लगाई जाएंगी. मंदिर के अंदर की दीवारों में अष्टवस्तु, पंचकन्या, यक्षगंधर्व की मूर्तियां लगेंगी. हिंदू धर्म गुरुओं की मूर्तियां भी लगेंगी. प्रवेश द्वार का 51 किलो का घंटा और गलियारों में हवा में तैरती अप्सराएं होंगी. इस तामझाम के पीछे आदिवासियों की आस्था का केन्द्र जामड़ीपाट ओझल सा हो गया है.
आदिवासियों पर चौतरफा हमला
वन और जंगलों की रक्षा अपने प्राण देकर करने वाले आदिवासी कार्पोरेट चक्रव्यूह में फंस कर छटपटा रहे हैं. धरती के फेफड़ों की रक्षा करने के इस अभियान में वे अकेले और अलग-थलग पड़ गए हैं. जंगल बचाने कभी आदिवासी सैकड़ों किलोमीटर की पदयात्रा करते दिखते हैं तो कभी अर्द्धसैनिक बलों की गोलियां झेलते मिलते हैं. दूसरी तरफ सरकार अपनी पूरी ताकत के साथ उन्हें पीछे धकेलने की कोशिश कर रही है. यह सरकार के उस दावे से एकदम उलट है जिसमें वह जैव विविधता और वनों के संरक्षण की बातें करती है.
भारत में प्रोजेक्ट टाइगर, मगरमच्छ संरक्षण परियोजना, प्रोजेक्ट एलीफैंट (हाथी), यूएनडीपी समुद्री कछुआ परियोजना समेत आठ से अधिक परियोजनाएं चलाई जाती हैं. तमाम वैश्विक संस्थाओं के दबाव को दरकिनार कर इसके बावजूद सरकार जंगलों को उजाड़ने पर तुली है. इसका विरोध करने वालों का सशस्त्र दमन हो रहा है. शेष आबादी खामोशी से इसे देख रही है. संभवतः उन्हें इस बात का अहसास तक नहीं है कि जंगलों की सुरक्षा केवल आदिवासियों के लिए नहीं बल्कि सकल जीव-जंतु समाज के लिए आवश्यक है. अब तक यह लड़ाई आदिवासी तथा मुट्ठी भर बुद्धिजीवी ही लड़ते प्रतीत हो रहे हैं.
देश भर में प्रताड़ित हो रहे आदिवासी
यह एक संयोग ही है कि आज देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर एक आदिवासी महिला की नियुक्ति हुई है. छत्तीसगढ़ की राज्यपाल भी आदिवासी समुदाय से आती हैं. राज्य में 32 विधायक आदिवासी समुदाय से हैं. राज्य के दोनों प्रमुख दलों के अध्यक्ष आदिवासी समुदाय से ही आते हैं. ऐसे में क्या यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि आदिवासियों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए कुछ ठोस कदम उठाए जाएंगे? यहां यह बात भी ध्यान रखने की है कि जल-जंगल-जमीन की सुरक्षा अकेले आदिवासियों का मामला नहीं है बल्कि समूचे जीव-जंतु जगत के लिए महत्वपूर्ण है. पर्यावरण के विनाश का जो दंश आज हम भोग रहे हैं क्या उसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी अकेले आदिवासियों की है?
हसदेव आरण्य क्षेत्र संघर्ष
कोरबा, सूरजपुर और सरगुजा जिलों की सीमा पर स्थित हसदेव अरण्य क्षेत्र में 18 कोल ब्लाक चिन्हित हैं. यहां का परसा कोयला खदान राजस्थान सरकार को आवंटित है. उत्खनन का ठेका अडानी के पास है. इस पूरे अंचल को मध्यभारत का फेफड़ा कहा जाता है. केंद्रीय वन, पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से संबद्ध स्वायत्त संस्थाएं जैसे वन्य जीव संस्थान (डबल्यूआईआई) और भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद (आईसीएफआरई) ने भी इस प्राकृतिक जंगल और वन्य-जीवों के नैसर्गिक पर्यावास और समृद्ध जैव विविधतता के मद्देनजर गैर वानिकी गतिविधियों को लेकर गंभीर चिंता जता चुकी है. स्थानीय ग्राम सभाओं का संगठन हसदेव बचाओ संघर्ष समिति पिछले लगभग दस वर्षों से इस अमूल्य जंगल को बचाने का हर संभव प्रयास कर रहा है.
अप्रैल 2022 में छत्तीसगढ़ सरकार के वन विभाग ने इस क्षेत्र में नए खदान खोलने के लिए वनों को काटने की अनुमति दे दी. इसके बाद आदिवासियों ने पेड़ों से चिपककर इसका विरोध किया. उन्होंने 200 किलोमीटर की पदयात्रा कर राज्यपाल को ज्ञापन सौंपा. पर सब ने चुप्पी साधे रखी. इसे सिर्फ आदिवासियों के विस्थापन का मामला मान लिया गया जिसकी लड़ाई आदिवासी स्वयं लड़ रहे थे. अंततः अदालत ने यहां पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी. खतरा अभी पूरी तरह टला नहीं है और विभिन्न मंचों पर इस मामले को उठाए जाने का सिलसिला बदस्तूर जारी है.
‘सीज ऑफ सिलगेर’
इसी तरह का एक संघर्ष बीजापुर के सिलगेर में चल रहा है. यहां आदिवासी सैन्य कैम्प का विरोध कर रहे हैं. एक साल से भी अधिक समय से चल रहा यह जनआंदोलन इस दौर का संभवतः सबसे लम्बा चलने वाला जन आंदोलन है. एक तरफ निहत्थे आदिवासी हैं और दूसरी तरफ ‘ऑपरेशन समाधान-प्रहार’ की टुकड़ियां. आदिवासियों का मानना है कि इन सड़कों का उनके लिए कोई उपयोग नहीं है. ये सड़कें उन कॉरपोरेट घरानों के लिए बन रही हैं जो यहां की प्राकृतिक संपदा को लूटना चाहती हैं. उनके सामने बैलाडीला लौह अयस्क खदानों का उदाहरण है जहां 35 हजार हेक्टेयर से भी अधिक कृषि और वन भूमि पूरी तरह से नष्ट हो गई है. खदानों का लौह अयस्क कन्वेयर और ट्रेनों से होकर विशाखापटनम पहुंच जाता है और वहां से विदेश चला जाता है. विस्थापित आदिवासियों के हाथ कुछ भी नहीं आया है.
सिलगेर का आंदोलन निर्माणाधीन सड़क और सैन्य कैंपों को आगे बढ़ने से रोक रहा है. बीजापुर और सुकमा की सीमा पर तारेम और जगरगुंडा के बीच सिलगेर तक बासागुड़ा और तारेम होते हुए सड़क बन चुकी है जिसे जगरगुंडा तक जाने से रोक दिया गया है. सिलगेर आंदोलन ने ‘एरिया डॉमिनेशन’ के माध्यम से कब्जा किए गए जल-जंगल-जमीन पर फिर से आदिवासियों के अधिकार को स्थापित कर एक बड़ी उपलब्धि हासिल की है. सिलगेर आंदोलन से थोड़ी दूर सीआरपीएफ कैम्प है. एक साल पहले इसी स्थान पर सैनिकों की गोलीबारी में 5 आदिवासियों की जान चली गई थी.
सिलगेर आंदोलन पदयात्रा, रैली, ज्ञापन, मुआवजा, ग्राम सभा के अधिकारी और ‘पेसा’ को लागू करवाने के लिए है. इस आंदोलन से प्रेरित होकर बेचापाल एवं पुसनार जैसी 12 अन्य जगहों पर आंदोलन उभरने लगे हैं. इनमें सिलगेर के अलावा बेचापाल, पुखार, एल्मागोंडा, एम्पुरम, पोटाली, टेटेम, नाहोदी, करेंपुरा, मिनपा, मन्कापाल, गोमपाड़, बाना, सिंगाराम और बेचाघाट शामिल हैं.
बस्तर की विभीषिका
खनिज क्षेत्रों में नक्सलवाद तथा अन्य हिंसात्मक गतिविधियों को आधार बनाकर बड़ी संख्या में अर्द्धसैनिक बलों को तैनात किया जाता है. यहां खूनी संघर्ष की घटनाओं का एक अपना लंबा इतिहास है. बस्तर में भी हर 2-3 किलोमीटर की दूरी पर अर्द्ध सैनिक बलों के कैंप बनाए जा रहे हैं. यह कैम्प बहुत कम समय में बन जाते हैं और फिर शासन का किला बन जाते हैं. यहां से आसपास की हर चीज को नियंत्रित किया जाता है. पहले यह ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ का हिस्सा था और अब यह ‘ऑपरेशन समाधान प्रहार’ के तहत आगे बढ़ रहा है.
सिलगेर की इस घटना ने मोड़ दी दिशा
13 मई 2021 को ग्राम सभा के सदस्यों के साथ ग्रामीण कैंप के पास गए और बिना ग्राम सभा की सहमति के कैम्प बनाने पर अपनी आपत्ति दर्ज कराई. ग्रामीणों और ग्रामसभा सदस्यों को सीआरपीएफ द्वारा पीटे जाने पर, दूसरे दिन 14 मई को कैम्प के विरोध में बड़ा जन सैलाब इकट्ठा हुआ. 17 मई 2021 को विरोध करने के लिए कैम्प की तरफ बढ़ रही एक विशाल रैली पर सीआरपीएफ ने गोलीबारी की जिसमें सिपाहियों की गोलियों से तीन लोगों की मौत हुई. इनमें कवासी वाघा उम्र 37 साल, कोरसा भीमा उम्र 32 साल और उईके मुरली उम्र 22 साल है. पुनेम सोमली नमक एक गर्भवती महिला को भगदड़ में गहरी चोटें आई जिसके कारण 18 मई को उसकी मृत्यु हो गई. इनके अलावा 18 ग्रामीण घायल भी हुए.
न्याय के लिए संघर्ष
इसके बाद ग्रामीणों ने न्यायिक जांच की मांग करते हुए मृतक शरीर को लेकर प्रदर्शन किया. 22 मई 2021 को सीआरपीएफ कैंप के निकट आम चुन रहे टोलेरवती गाँव के मीडियम मासा और उसके 2 दोस्तों को गोली मार दी. सरकार ने मजिस्ट्रीयल जांच का निर्देश दिया किन्तु अब तक न्याय नहीं मिल पाया है. 1 नवम्बर को इसके विरोध में जनसभा हुई. जनसभा से वापस जाते हुए 55 आदिवासियों को – जिनमें अधिकतम महिलाएं और बच्चे थे, उन्हें कोबरा, सीआरपीएफ और छतीसगढ़ एसटीएफ ने चिंतलनर पुलिस थाने के अंतर्गत मोरपल्ली गाँव के पास हिरासत में ले लिया. इनमें से 8 लोगों को आर्म्स एक्ट और एक्सप्लोसिव सब्सटेन्स ऐक्ट लगा कर माओवादी करार करते हुए जेल भेज दिया गया.
19 जनवरी 2022 को 9 नवजवानों, जिसमें 7 पुरुष और 2 महिलाएं थी, ने राज्यपाल अनुसुइया उईके से मिलने जा रही थी जिन्हें कोंडागाँव बस स्टॉप पर रोक लिया गया, बस से घसीट कर कोविड क्वॉरन्टीन सेन्टर पहुंचा दिया गया. हालांकि भारी विरोध के बाद इन्हें छोड़ दिया गया.
क्या छिपाना चाहती है पुलिस
सिलगेर में मारे गए आदिवासियों की पहली बरसी का आयोजन 15 से 17 मई, 2022 के बीच किया गया. ‘फोरम अगेन्स्ट कोरपोरटाइजशन एण्ड मिलिटराइजेशन’ की एक 8 सदस्यीय ‘सालिडैरीटी टीम’ दिल्ली से निकली. पुलिस प्रशासन ने पहले तो इन्हें रोक दिया पर बाद में बस्तर आईजी को कहना पड़ा कि किसी भी कार्यकर्ता या पत्रकार को सिलगेर जाने से नहीं रोका जा रहा है- चेकिंग तो ‘रूटीन एक्सर्साइज़’ है.
किसके खिलाफ कैसा मोर्चा
सिलगेर के आदिवासी आंदोलन को कुचलने के लिए जैसी तैयारी यहां शासन ने की है इसका वर्णन सालिडरिटी टीम ने किया है. विशालकाय बख्तरबंद गाड़ियां, ऑटोमैटिक राइफलों पर ग्रिनेड लॉन्चर लगे हुए हथियारों से लैस सिपाही; ऐसा प्रतीत हो रहा था की आप छत्तीसगढ़ में न होकर युद्ध ग्रसित जाफना, लाओस या कॉम्बोडिया में हों.
नया नेतृत्व और नई रणनीति
मूलनिवासी बचाओ मंच के सदस्य ज्यादातर युवा पुरुष और महिलाएं हैं जिनकी उम्र 25 साल से अधिक नहीं है और अपने संकल्प को लेके बहुत समर्पित और अडिग हैं. यह सलवा जुडूम का सामना करने वाले वह युवा हैं जिन्होंने कम उम्र में सलवा जुडूम के द्वारा अपने परिवार के किसी व्यक्ति या अपने गांव के किसी व्यक्ति की हत्या या बलात्कार को देखा है.
मंच के कुछ लड़के और लड़कियां बीजापुर और सुकमा जैसे शहरों में पढ़े हैं.