
बहादुर कलारिन की मांची
डॉ. डी. पी. देशमुख
बहादुर कलारिन का नाम ही उनका पूर्ण परिचय है. तेवर में बहादुर और पेशे से कलवार. रानी दुर्गावती, रानी लक्ष्मीबाई, रानी अवंती बाई लोधी और रजिया सुल्तान जहां भारतीय नारी के शौर्य की जीवंत प्रतीक हैं वहीं सैकड़ों ऐसी महिलाओं का उल्लेख लोक साहित्य में होता रहा है जिन्होंने अपने-अपने स्तर पर साहस का परिचय दिया है. बहादुर कलारिन संभवतः नारी सम्मान की सुरक्षा के लिए लड़ने वाली पहली महिला है.
छत्तीसगढ़ में बहादुर कलारिन की गाथा शौर्य और साहस का पाठ पढ़ाती है. आज विभिन्न मंचों के माध्यम से इस वीरांगना के साहस और त्याग को अभिव्यक्ति मिल रही है. प्रस्तुत गाथा बालोद जिले के गुरूर से 12 किलोमीटर दूर पश्चिम में स्थित “सोरर” गांव की है जिसका प्राचीन नाम “सरहरगढ़’ था. यहां प्राप्त शिलालेख और प्राचीन मंदिर तथा अन्य अवशेष बरबस कलचुरी शासन की याद ताजा करते हैं.
कहा जाता है कि एक बार रतनपुर का कलचुरी राजा शिकार करते सरहरगढ़ के बीहड़ जंगल में आ गया. उन दिनों शिकारी अपने साथ एक बाज पक्षी रखा करते थे. बाज शिकार पर नजर रखता था और शिकारी उसका अनुसरण करते थे. सरहरगढ़ का जंगल इतना घना था कि राजा को बाज दिखाई देना बंद हो गया, वह दिशा भ्रमित हो गया. सैनिक भी पीछे रह गये. सूर्यास्त का समय था, जंगल में अंधेरा गहराने लगा था; रास्ता दिखना बंद हो गया. राजा को आश्रय की चिंता सताने लगी. तभी घने जंगल में कुछ दूर उन्हें टिमटिमाती हुई मशाल दिखाई दी. राजा उसी ओर बढ़ चला.
यहां घने जंगल के बीच एक कुटिया थी, जहां कलारिन जाति की अति सुंदर युवती अपनी वृद्ध माँ के साथ निवास करती थी. युवती प्रतिदिन मचोली में बैठकर शराब बेचती थी. मां-बेटी के भरण-पोषण का यही एकमात्र साधन था. यहां गांव के बाहर खुले मैदानों में स्थित पत्थरों की नक्काशीदार विशाल मचोली अतीत के साक्ष्य के तौर पर आज भी विद्यमान है.
कुटिया पहुंचकर राजा ने अपना परिचय दिया और अन्य साथियों से बिछड़ जाने की आपबीती सुनाई. उसने युवती से रात्रि विश्राम का आग्रह किया जिसे स्वीकार कर लिया गया. युवती के रूप और सौंदर्य को देखकर राजा अपने होश-हवास खो बैठा. उसने वृद्ध कलारिन की सहमति मांगी और युवती के साथ गंधर्व विवाह कर लिया.
सुबह राजा को राजपाट एवं परिवार की सुधि आई. राजपाट की मुश्किलें बताकर पुनः वापस आने का बहाना बनाकर राजा एक बार जो गया तो फिर कभी नहीं लौटा. समय आने पर युवती ने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया. राजा की याद में उसका नाम रखा “छछानछाडू’, अर्थात् “बाज को छोड़ दिया’.
बाल्यकाल से ही छछानछाडू अन्य बालकों से भिन्न था. पिता को लेकर उसके मन में जिज्ञासा तो थी पर माँ से पूछने का साहस वह नहीं कर पाता था. इधर उसके मित्र पिता को लेकर उसकी खिल्ली उड़ाते थे. एक दिन बात बढ़ गई और एक साथी से झगड़ा हो गया. दुखी छछान घर पहुंचा और माँ के आगे प्रश्नों की बौछार कर दी. विवश माँ ने सारी बातें सिलसिलेवार बता दी. माँ पर हुए अत्याचार को सुन छछान प्रतिशोध की अग्नि में जल उठा. अपने पिता के साथ ही उसे सभी राज परिवार से घृणा हो गई. विद्रोही मन तरह-तरह की योजनाएं बनाने लगा.
बलीष्ठ तो वो था ही, बुद्धि का भी तेज था. उसने हम उम्र युवकों की एक टोली बनाई. कलाबाजी और युद्ध कौशल के प्रशिक्षण द्वारा उसने एक सशक्त फौज भी तैयार कर ली. दिन-रात वह केवल एक ही बात सोचता था कि माँ पर हुए अत्याचार का बदला कैसे लिया जाए. डॉ० बलदेव प्रसाद मिश्र ने छछानछाडू की इस स्थिति का वर्णन करते हुए लिखा है कि प्रकृति ने उसे पुरुषार्थ प्रदान किया वहीं परिस्थिति ने उसे उद्दण्ड भी बनाया. उसने छत्तीसगढ़ एवं अन्य प्रांतों के राजाओं पर हमला कर 147 राजकुमारियों का अपहरण कर लिया. उन्हें क्रूर यातनाएं दी. उसने 147 ओखलियां बनाई और राजकुमारियों को धान कूटने की आज्ञा दी. गांव में आज भी “सात आगर सात कोरी’ अर्थात् 147 ओखलियों के अवशेष बिखरे पड़े हैं.
छछानछाडू का कठोरतम जुल्म माँ को अच्छा नहीं लगा. उसकी नजरों में यह नारी जाति का अपमान था. निरपराध राजकुमारियों को जुल्म से मुक्त कराने का उसने भरसक प्रयास किया, लेकिन छछानछाडू ने उसकी एक न सुनी और यातनाओं का क्रम चलता रहा. अंततः मां को कठोर फैसला करना पड़ा.
“धूर’ का त्यौहार था. संपूर्ण गांव गुलालमय हो रहा था. नंगाड़ों की थाप पर लोग थिरक रहे थे. छछानछाडू के लिए छप्पन प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन बनाये गये थे. छछान रंग-गुलाल से सराबोर और मदिरा में मदहोश होकर घर पहुंचा, भूखा तो था ही घर में तरह तरह के पकवान देख उसकी भूख अधिक बढ़ गई, भोजन करने के बाद उसने माँ से पानी मांगा, लेकिन घर में पानी का एक बूंद भी नही था. बहादुर कलारिन ने सुनियोजित ढंग से घर के नौकरों को छुट्टी दे दी गई थी. पास- पड़ोस के घरों के दरवाजे भी बंद थे, मिठाई खाने से छछानछाडू की प्यास और अधिक बढ़ने लगी. माँ उसे पानी पिलाने के बहाने बावली ले गई.
छछान ने जैसे ही बावली में पानी निकालने को झांका, माँ ने धक्का देकर उसे बावली में गिराकर मार डाला. उसकी मृत्यु के पश्चात् बंदी राजकुमारियों को छोड़ दिया गया और यातनाओं का क्रम समाप्त हुआ. इस सदमें को वह स्वयं भी बर्दाश्त नहीं कर सकी और एक धारधार कटारी से अपनी इहलीला समाप्त कर ली.
नारी अत्याचार के विरूद्ध किसी महिला द्वारा अपने बेटे के बलिदान की यह गाथा अपने आप में बेजोड़ है. इस साहसिक कार्य ने उसे “बहादुर कलारिन” बना दिया. कटार लिये विरांगना की मूर्ति ग्राम सोरर के गर्भ में आज भी स्थित है. जिस बावली में छछानछाडू की मृत्यु हुई थी, कालांतर में वहां एक विचित्र वृक्ष उगा. गांव वाले बताते हैं कि तीन-चार दशक पहले तक उस वृक्ष में प्रतिदिन सात रंग के फूल खिलते थे. गांव वाले आज भी माँ-बेटे की स्मृतियों को श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं. छछानछाडू की पुण्य तिथि के कारण ही सोरर में धूर का त्यौहार प्रतिबंधित है. छत्तीसगढ़ के कलार जाति के लोग सोरर को धार्मिक आस्था का केन्द्र भी मानतें हैं.
बेटियों को वीरता के लिए माता बहादुर कलारिन पुरस्कार : मुख्यमंत्री भूपेश बघेल
राज्य शासन द्वारा रायपुर चंदखुरी स्थित माता कौशल्या धाम को विकसित कर पर्यटन स्थल के रूप में चिन्हांकित करने से इसका महत्व बढ़ा है. यहां पर्यटकों की संख्या में आशातीत वृद्धि हुई है. इसी संदर्भ में प्रदेश के राजिम माता, विरांगना बिलासा, बहादुर कलारिन जैसे धार्मिक, पौराणिक एवं सांस्कृतिक वैभव से परिपूर्ण स्थलों को भी प्रचारित एवं विकसित करने से इन धरोहरों के कई तथ्य उजागर होंगे तथा नई पीढ़ी उससे परिचित होगी. इसी परिपेक्ष्य में प्रदेश के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने अभी हाल में ही प्रदेश की बेटियों को वीरता के लिए माता बहादुर कलारिन पुरस्कार देने की घोषणा की.
अन्य दर्शनीय स्थल
करकाभाट स्थित पाषण कालीन अवशेष, सियादेवी, रानी मां, तांदुला-आदमाबाद जलाशय, गुरुर स्थित प्राचीन मूर्तियां, गंगा मइया, गंगरेल-रुद्री डैम धमतरी आदि.
आवासीय सुविधा
ग्राम झलमला में तांदुला जलाशय का रेस्ट हाउस, जिला मुख्यालय बालोद में रेस्ट हाउस व मध्यम स्तर के लॉज व हॉटल उपलब्ध, जिला धमतरी में भी रेस्ट हाउस एवं मध्यम स्तरीय हॉटल की सुविधा उपलब्ध है.