गज़ल
क्यों आज दुनिया के बाजार में खो गया है आदमी
अब जागने जगाने के बहाने सो गया है आदमी।
कैसे उगेगी बस्ती में प्रेम के अमृत की फसल
जब दिल में नफरत का बीज बो गया है आदमी।
वो कोई और दौर था, ये कोई और दौर है
जब मजलूमों को हंसाते हंसाते रो गया है आदमी।
दौलत और ओहदे की हवस में हाल है यह
बेहद खतरनाक आदमखोर हो गया है आदमी।
कहते हैं सभी कभी इंद्रधनुषी थी ये दुनिया
अब सब रंग इसके बेरहमी से धो गया है आदमी।
जिस भरोसे के सहारे, जी रहा था ये जहां
उस दुनिया का अब खो गया है आदमी।
चलो मिलके अब नए सिरे से कुछ करें
कोई ये न कहे कि लाश अपनी ढो गया है आदमी ।
विमल शंकर झा ‘विमल’
भिलाई