
हेमंत कश्यप –
जगदलपुर वनांचल में रहने वाले आदिवासियों का जीवन सरकार तो बेहतर करना चाहती है परंतु इन इलाकों में तैनात भ्रष्ट अधिकारी और क्षेत्र के व्यापारी आदिवासियों को अभी भी गरीबी के साए में रखना चाहते हैं, इसलिए जनकल्याणकारी योजनाओं का पूरी ईमानदारी के साथ पालन नहीं हो रहा है और आदिवासियों का जीवन जस का तस है. कहने को आदिवासियों को विभिन्न योजनाओं में पचासी प्रतिशत तक छूट देने का प्रावधान है परंतु वनांचल में रहने वालों के लिए बनाई गई दर्जनों योजनाओं का लाभ आदिवासियों को नहीं मिल रहा है.
छत्तीसगढ़ सरकार ने जहां एक तरफ प्रदेश के लाखों किसानों को बड़ी राहत पहुंचाई है वहीं दूसरी तरफ आदिवासी बहुल राज्य के आदिवासियों भाइयों का जीवन बेहतर करने तेंदूपत्ता का दर ढाई हजार रुपए से बढ़ाकर 4000 रुपए प्रति मानक बोरा कर दिया है, वहीं 61 प्रकार की वनोपज का समर्थन मूल्य भी घोषित किया है. सरकार ने कोदो और कुटकी का समर्थन मूल्य तीन हजार रुपए प्रति क्विंटल तय किया है. वहीं रागी का समर्थन मूल्य तीन हजार 377 रुपए प्रति क्विंटल रखा है. इनको खरीदने की व्यवस्था भी राज्य लघु वनोपज संघ के माध्यम से की गई है. इसके अलावा इन फसलों के वैल्यू एडिशन का काम हो रहा है. इसके लिए छत्तीसगढ़ मिलेट मिशन की स्थापना की गई है. सरकार इन फसलों का उत्पादन और क्षेत्रफल दोनों को बढ़ाने की कोशिश में है.
नई वन धन योजना के तहत गांवों में महिला स्व सहायता समूह को जोड़ा गया है. प्रत्येक समूह को वन विभाग द्वारा तराजू और खाली बारदानों के अलावा वनोपज खरीदने 20 हजार से लेकर दो लाख रुपए उपलब्ध कराया गया है. इस व्यवस्था के चलते ग्रामीण संग्रहित वनोपज गांव में ही समूह द्वारा संचालित खरीदी केंद्र में प्रतिदिन वनोपज बेचने लगे हैं. इस नई व्यवस्था के चलते ग्रामीणों को संग्रहित वनोपज बेचने अब आसपास के साप्ताहिक बाजारों में जाना कम कर दिए इसलिए जो व्यापारी ग्रामीणों की उपज माटी के मोल खरीदते थे, वह बंद होने लगा. इसके चलते कुछ व्यापारी भी समर्थन मूल्य के आसपास वनोपज खरीदने लगे. इधर व्यापार में हो रहे घाटे की भरपाई हेतु व्यापारियों के दलाल गांव-गांव तक पहुंचने लगे और गांव के प्रभावशाली व्यक्तियों तथा सरपंचों से मिलकर ग्रामीणों पर समूह के बजाय व्यापारियों को माल देने दबाव डालने लगे हैं. उदाहरण के लिए छत्तीसगढ़ सरकार ने गिलोय का समर्थन मूल्य 40 रुपए प्रति किलो निर्धारित किया है जबकि व्यापारी इसे चार- पांच रुपए की दर से खरीदते रहे हैं.
सरकार की वन धन नीति के चलते यह प्रावधान भी रखा गया है कि अगर कोई व्यापारी समर्थन मूल्य से कम दर पर वनोपज खरीदता है तो उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाए परंतु देखा जा रहा है. कि वनोपज संघ ही इस दिशा में उदासीन हैं और आज भी व्यापारी दलालों के माध्यम से कम दर पर वनोपज की खरीदी कर रहे हैं. इनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो रही है.
बताते चलें कि एशिया की सबसे बड़ी इमली मंडी बस्तर है. यहां का तेंदूपत्ता, इमली और अमचूर का निर्यात विभिन्न सात देशों को किया जाता है. बहुउपयोगी महुआ और उसके बीजों का बड़ा कारोबार भी यहीं होता है. बस्तर की चिरौंजी और फूल बाहरी से पूरे देशवासी वाकिफ हैं. कुल मिलाकर बस्तर में प्रति वर्ष 10 अरब रुपए से अधिक का वनोपज का कारोबार होता है. बस्तर विभिन्न वनोपज से संपन्न है. इसके बावजूद यहां के आदिवासी गरीब हैं.
बस्तरवासियों के संदर्भ में छत्तीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने कहा था कि बस्तर के आदिवासी अमीर धरती के गरीब लोग हैं, विभिन्न सरकारों ने अपने कार्यकाल में बस्तर को एक प्रयोगशाला समझ विभिन्न योजनाएं प्रारंभ की और इसके लिए भोपाल- दिल्ली से अरबों खरबों रुपए भी आए परंतु बस्तर की तस्वीर नहीं बदली, इसलिए बस्तरवासी का मानना है कि केंद्र और राज्य से हमारे लिए इतना रुपया चला कि दिल्ली से बस्तर तक की सड़क को नोटों से पाटा जा सकता था. हर आदिवासी के घर में एक मारुति खड़ी हो सकती थी परंतु विडंबना यह है कि आज भी 75 फ़ीसदी आदिवासियों के पास खुद की साइकल तक नहीं है. इनके घर जो साइकल नजर आती है वह सरकार की सरस्वती और श्रमवीर योजना की है. इनकी विपन्नता के लिए आखिर कौन जिम्मेदार हैं? इसे ऊपर छपे व्यंगात्मक चित्र से भी समझा जा सकता है.