
आश्विन (क्वांर) शुक्ल दशमी को धूमधाम से मनाया जाने वाला विजया दशमी का पर्व ही दशहरा कहलाता है. विजया दशमी हमारा राष्ट्रीय पर्व भी है. यह मुख्यतः क्षत्रियों का त्यौहार है. साधारणतः जनता इस त्यौहार को रामलीला के रूप में मनाती है. शुक्ल पक्ष की नवमी तक रामलीला होती है और दशमी के दिन राम लक्ष्मण की सवारी निकलती है. यह झांकी सब जगह यानी उत्तर-मध्य भारत में सामान्य रूप से एक ही प्रकार की होती है. इस विजया दशमी पर्व के साथ कई कथाएं जुड़ी हैं. बस्तर अंचल में दशहरा का पर्व पृथक रूप से मनाया जाता है. देवी के द्वारा महिषासुर वध का प्रसंग जुड़ा है. बंगाल और उड़ीसा में भी विजया दशमी पर्व महिषासुर-वध प्रसंग से जुड़ा है.
अंचल में दशहरा
बस्तर अंचल को छोड़कर छत्तीसगढ़ प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में दशहरा यानी विजयादशमी का पर्व रावण पर राम के विजय की कथा से जुड़ा हुआ है. भगवान राम ने इसी दिन लंका पर चढ़ाई कर और रावण पर विजय प्राप्त की थी. इसलिए यह तिथि विजयादशमी कहलाती है. आश्विन शुक्ल दशमी की यह तिथि शत्रु को परास्त करने के लिये पुष्प तिथि मानी जाती है. ऐसा माना जाता है कि आश्विन शुक्ल पक्ष दशमी को तारा उदय होने के समय विजय नामक काल होता है. यह कार्य सिद्धि प्रदान करने वाला काल होता है. श्रवणयुक्त सुर्योदय वाली यह तिथि सर्वोत्तम है. इस दिन नीलकंठ पक्षी का दर्शन भी शुभ माना जाता है.
प्रचलित कथा
दशहरा से संबंधित प्रचलित कथानुसार एक बार माता पार्वती ने भगवान महादेव से दशहरा त्यौहार का फल पूछा. भगवान महादेव ने कहा- आश्विन शुक्ल दशमी को नक्षत्रों के उदय होने पर विजय नामक काल होता है, जो सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाला होता है. यदि श्रवण योग हो तो और भी उत्तम होता है. चूंकि भगवान रामचंद्र ने इसी विजय काल में लंका पर चढ़ाई की थी, अतः राजाओं को युद्ध प्रसंग में इसी काल का चुनाव करना चाहिए. सेना के साथ पूर्व दिशा में शमी वृक्ष का पूजन करना चाहिए. इस पर माता पार्वती ने शमी वृक्ष का महत्व पूछा. भगवान महादेव ने बताया कि शमी वृक्ष में अज्ञातवास के समय अर्जुन ने धनुष-बाण को सुरक्षित रखा था. शमी ने एक वर्ष तक देवता की भांति अर्जुन के धनुष-बाण की रक्षा की थी. विजय दशमी के दिन ही शमी वृक्ष ने रामचंद्र जी से भी कहा था कि विजय होगी,इसीलिए शमी वृक्ष का पूजन होता हैं. यह कथा यद्यापि युगों से चली अाई है, पर इसका साधारण जन में रूपान्तरण इस तरह हुआ कि नौ दिनों तक रामलीला करने के बाद दशमी के दिन प्रतीक रूप में राम-रावण युद्ध होता है. रावण वध के बाद अनेक स्थानों में रावण के पुतले जलाते हैं. कई गावों मेें रावण जलाने की प्रथा नहीं है. परंतु रावण वध के बाद शमी वृक्ष को प्रणाम कर उसके पत्तों का आदान-प्रदान कर एक दूसरे को शुभकामनाएं दी जाती है. शमी वृक्ष के पत्ते को ही सोनपान कहा जाता है. छत्तीसगढ़ के दशहरे में सोनपान का विशेष महत्व है. यदि शमी वृक्ष उपलब्ध नहीं है, तो आजकल शमी से मिलते जुलते कचनार वृक्ष के पत्तों को सोनपान के रूप में प्रयुक्त किया जाता है.
रामलीला का मंचन
रामलीला के रूप में दशहरा का पर्व गांवो में अत्यंत रोचक, मोहक और आनंदमय होता है. रावण बनने के लिए ब्राम्हण पात्र की तलाश होती है. नहीं मिलने पर कोई अन्य भी इस पात्र की भूमिका अदा करता है. समाज के सभी वर्ग गरीब-अमीर, किशोर-प्रौढ़ इस रामलीला में भाग लेते हैं. महिने भर से रामायण की चौपाई रटते हारमोनियम के साथ भजन गाने और जोकर का अभ्यास भी होता है. पूरी वानर सेना तैयार की जाती है जिसमें सामान्य से लेकर दलित वर्ग के किशोर वय के बच्चे सम्मिलित होते है. छत्तीसगढ़ के गांव-गांव में रामलीला मंडली सक्रिय हो जाती है. कई गांवों के समूह एक गांव में रामलीला करते हैं. इसी तरह हर गांव में रावण का पुतला नहीं बनाया जाता है. कई गांवों के बीच एक गांव में रावण जलाया जा रहा है. ऐसी जनश्रुति है कि कहीं कहीं रावण के वंशज रहते हैं-वे विजयादशमी उत्सव नहीं मनाते. परंतु यह जनश्रुति प्रामाणिक नहीं हैं. इस दशहरे का संबंध रावण पर राम के विजय से है. रामलीला समाप्ति के बाद यानी रावण को जलाने के बाद घर-घर में राम -लक्ष्मण की आरती और वंदना होती है. यह बहुत भाव प्रवण होता है. यदि राम लक्ष्मण के वेश में दलित किशोर हैं तो भी नर नारी उन्हें प्रणाम करते हैं. यह सामाजिक समरसता हमारी संस्कृति की जड़ में हैं. सारा गांव राममय हो जाता है. दशहरा देखकर आने के बाद पुरुषों की आरती महिलाएं उतारकर सोनपान भेंट करती हैं.
डॉ. सत्यभामा आडिल-